ग़ज़ल
जहां खेला था बचपन में वो रस्ता छोड़ आया है,
जीते-जागते रिश्तों को मरता छोड़ आया है
बिताया था जहां पे साथ मिलके बेशकीमत वक्त,
वहीं यारों को बेमतलब भटकता छोड़ आया है
कसमें साथ जीने-मरने की खाईं थीं जिसके संग,
उस महबूब को भी वो सिसकता छोड़ आया है
दोहरी हो गई जिसकी कमर इसकी पढ़ाई में,
अपने उस बाप को खेतों में जलता छोड़ आया है
इबादत उसकी नामंजूर हो जाएगी हर दर पर,
जो गाँव में बूढ़ी माँ को रोता छोड़ आया है
तड़पेगा एक दिन वो भी तनहाई में ऐसे ही,
जैसे आज अपनों को तड़पता छोड़ आया है
— भरत मल्होत्रा