सामाजिक

गाँठ

मैं जब कढ़ाई या बुनाई करती हूँ …… तो जब गाँठ डालना होता है ….. गाँठ डालना होगा न … क्योंकि लम्बे धागे उलझते हैं और उलझाव से धुनते धुनते कमजोर भी होने लगते हैं ……. और ऊन का 25 या 50 ग्राम का गोला होता है ….. 400 से 600 ग्राम का गोला तो मिलता नहीं ना …..

 —- जहाँ खत्म हुआ सिरा और शुरू होने वाला सिरा के पास थोड़ा थोड़ा उधेड़ती हूँ फिर दोनों के दो दो छोर हो चार छोर हो जाते हैं ….  दो दो छोर सामने से मिला बाट लेती हूँ …… फिर गाँठ का पता नहीं चलता है …… क्या रिश्ते के गाँठ को यूँ नहीं छुपाया जा सकता है ….. कुछ कुछ छोर तक उधेड़ डालो न मन को …..

हर गाँठ को सुलझाया जा सकता है … रफ़ू से चलती है जिंदगी

*विभा रानी श्रीवास्तव

"शिव का शिवत्व विष को धारण करने में है" शिव हूँ या नहीं हूँ लेकिन माँ हूँ

4 thoughts on “गाँठ

  • बहन जी , जो इंसान गाँठ को सुलझा कर रफू कर लेता है, जिंदगी चलने लगती है, दुःख की बात यही है कि बहुत लोग सुलझाना चाहते ही नहीं तो रफू का सोचने से भी किया फायेदा !

    • विभा रानी श्रीवास्तव

      _/_ सत्य

  • लीला तिवानी

    प्रिय सखी विभा जी, हर गाँठ को सुलझाया जा सकता है … रफ़ू से चलती है जिंदगी. अति सुंदर विचार और अति सुंदर प्रस्तुति.

    • विभा रानी श्रीवास्तव

      _/_ आभारी हूँ प्यारी सखी जी _/_

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