शहर में तेरे प्यार का मंज़र नहीं मिला
मकानों के दरम्यान कोई घर नहीं मिला
शहर में तेरे प्यार का मंज़र नहीं मिला
झुकी जाती है पलकें ख़्वाबों के बोझ से
आँखों को मगर नींद का बिस्तर नहीं मिला
सर पे लगा है जिसके इलज़ाम क़त्ल का
हाथों में उसके कोई भी खंज़र नहीं मिला
किस्तों में जीते जीते टुकड़ों में बंट गए
खुद को समेट लूँ कभी अवसर नहीं मिला
फिरता है दर्द सैकड़ों लेकर यहां नदीश
अपनों की तरह से कोई आकर नहीं मिला
©® लोकेश नदीश