अजकर करे न चाकरी – भाग 2
सोमनाथ ने चैन की साँस ली जब दोनों गांव में पहुंच गए।
“भाई कालू! मैं उत्तर दिशा में जाता हूँ और तुम पूर्व की ओर जाना। पांच और केवल पांच घरों में भिक्षा मांगना, मिले तो मिले वरना लौट आना। मैं भी अपना भिक्षाटन समाप्त कर यहीं मिलूँगा।“
कालूराम के प्राण में प्राण आए कि अब खाना खाने को न सही, कम से कम देखने को तो मिलेगा और जब देखने को मिलेगा तो खा फिर खाने को भी मिलेगा ही।
कालूराम ने ज़ोर से सांकल पीटी, इस मंशा से कि यजमान एक ही खड़खड़ाहट में बाहर आ जाए और समय व्यर्थ न हो। परंतु कोई सुगबुगाहट तक न हुई।
अबकी कालूराम ने इतनी ज़ोर से खटखटाया कि अंदर अगर मुर्दा भी होगा तो धरती फोड़कर बाहर आ जाए। परंतु ऐसा कुछ न हुआ। न किसी मानव ने दर्शन दिए न कोई प्रेत ही सामने उठकर आया। यहां तक कि किसी चूहे तक ने भी नहीं चुहचुहाया।
कालूराम घबरा गए। उन्हें अपने दिनों कि याद आ गई कि कैसे वे खाट पर सांस रोककर पड़े रहते थे और साधु निराश होकर लौट जाया करते थे।
यह याद आते ही कालूराम के शरीर में कंपकंपी दौड़ गई कि अगर यहाँ से भिक्षा न मिली तो केवल चार घर ही बचेंगे भिक्षा के लिए और फिर वह भिक्षा भोजन के लिए पर्याप्त नहीं होगी।
इसी व्याकुलता में कालूराम ने इतनी ज़ोर से सांकल पीटी की वो उखड़कर हाथ में आ गई। सांकल हाथ में आ गई और आंसूँ आंख में । तभी किसी ने पीछे से पुकार कर कहा – “महाराज! घर पर कोई नहीं है। सभी लोग तीर्थ पर गए हैं। आप व्यर्थ ही किवाड़ खटखटा रहे हैं।“
कालूराम का क्रोध सातवें आसमान पर था। वे बुदबुदाए “मैं किवाड़ खटखटा रहा हूँ…मैं किवाड़ खटखटा रहा हूँ ….अरे मैं किवाड़ तोड़ रहा हूँ और मुझे अब बताया जा रह है कि भीतर कोई है ही नहीं।“
कालूराम पांव पटकते हुए आगे बढ़ गए। दूध का जला छाँछ भी फूँककर पीता है। कालूराम के लिए फूँक-फूँक कर चल पाना तो असंभव है क्योंकि उनकी मंथर से मंथर गति में भी पांव पटका ही जाते हैं। परंतु कालूराम ने अगला कदम सोच-समझकर रखा। जी हाँ, सोच और समझ, दो दुर्लभ प्राणी जो कालूराम से रिश्तेदारी करना कतई पसंद नहीं करते।
परंतु इस बार मामला कालूराम के पेट से जुड़ा था इसलिए कालूराम ने इन दोनों प्राणियों को धर दबोचा और सोच-समझकर अगला यजमान चुना। कालूराम ने सोचा कि केवल वही द्वार चुना जाए जिसके दो किवाड़ न हो, एक आगे और पीछे, जिससे पता ही नहीं लगता कि घरवाले पीछे वाले किवाड़ पर ताला लगा कर तीर्थ चले गए हैं। पर यह भी क्यों किया जाए। थोड़ी और समझदारी दिखाए जाए और इसलिए कालूराम ने केवल वही द्वार चुना जिसके किवाड़ बंद न हो ताकि वहाँ उन्हें बल का प्रयोग न करना पड़े और साथ ही वहां दूर से भी एक-आध प्राणी हिलते-डुलते अवश्य दृष्टिगोचर हों ताकि पूरे के पूरे कुनबे के तीर्थ यात्रा चले जाने की संभावना ही न हो।
घूमते-घूमते कालूराम एक घर के सामने पहुँचे जहाँ एक नवयुवक घर के बाहर ही खाट पर लेटा था। कालूराम ने कड़कड़ाती आवाज़ में कहा –“बालक….उठो बालक”
बालक सकपका कर एकदम सीधा खड़ा हो गया। कालूराम ने अपना कटोरा एकदम उसके मुँह के सामने लाते हुए कहा “भिक्षा दे।“
कालूराम भिक्षा के लिए जितने व्याकुल थे वह नवयुवक उतना ही सशंकित उसे कालूराम का व्यवहार अटपटा लगा। सही भी था कालूराम क्या जाने भिक्षा मांगने और भोजन मांगने का अंतर। अभी तो वह बहुत ज़ब्त किए हुए हैं वरना खाने के लिए तो वह किसी की गर्दन भी मरोड़ सकते हैं।
नवयुवक इसलिए भी सशंकित था क्योंकि अन्य भिक्षुओं को तो वह प्राय: देखता था। कालूराम को पहली बार देखकर खटका हुआ। उसपर कालूराम की काया उसे किसी साधु-संत से अधिक चोर-डकैत की लगी।
कालूराम ने जिस अकड़ के साथ भिक्षा देने को कहा था उसके दोगुने अकड़ के साथ नवयुवक ने सीना तान कर कहा –“नहीं है भिक्षा….चल आगे जा।“
कालूराम की आंखें क्रोधाग्नि में लालटेन हुई जाती हैं। कोई और समय होता तो वह इस पिद्दे को मच्छर की तरह मसल देता। परंतु उसे सोमनाथ की बात याद आ गई कि भोजन मिले तो मिले वरना सही समय पर वापस वहीं मिलना होगा नहीं तो भोजन करने का समय बीत जाएगा। और कालूराम सचमुच आगे बढ़ गए।
आगे बढ़ने के साथ-साथ कालूराम ने तय किया कि अब अगला यजमान वहाँ हो जहाँ किवाड़ खुला हो, घर के प्राणी दिखाई पड़ते हों और सबसे महत्वपूर्ण कि उन प्राणियों में कोई एक स्त्री हो जिससे शालीनता से भिक्षा प्राप्त होने की संभावना हो।
भटकते-भटकते अगली गली के मुहाने पर एक घर ऐसा मिला जहाँ घर के बाहर एक हृष्ट-पुष्ट बालिका अपनी चोटी गूँथने में मग्न थी। कालूराम को वह अपने ही जैसी कोई भाई-बहन की अवतार लगी जो उसके उद्धार के लिए अचानक प्रकट हुई है। मगर उसको कालूराम कोई भाई-बन्धु प्रतीत न हुआ और न हि उसकी उद्धार करने की कोई मंशा थी क्योंकि कालूराम ने जब अपना सूखा, अन्नहीन पात्र आगे किया तो उसने साफ मना कर दिया –
“माताजी घर पर नहीं हैं। किसी के घर धान कूटवाने गई हैं।“
”कोई बात नहीं बहन। तुम तो हो। तुम्हीं कुछ दान-पुण्य करो। इससे तुम्हारे घर का धन-धान्य बढ़ेगा। खुशहाली आएगी।“
“मैं क्या करूँ? माताजी रसोई को ताला लगाकर गई हैं।“
”वह भला क्यूँ?”
“कहीं मैं चोरी से गुड़ और घी न खाकर खतम कर दूँ। बस इसीलिए।“
कालूराम के सामने एक पल के लिए अंधेरा छा गया और संसार की सारी रसोइयों के कपाट उन्हें बंद दिखने लगे। किसी प्रकार अपने शरीर की बहुमंजिला इमारत को ढहने से बचाते हुए वह आगे बढ़ गए।
वैसे तो भूख की व्याकुलता और संसार की नश्वरता ने उनके सोचने-समझने के द्वार तो द्वार खिड़कियां और रोश्नदान तक बंद कर दिए थे परंतु किसी एक छिद्र से समझदारी की एक किरण मस्तिष्क के भीतर प्रवेश कर ही गई।
इस किरण ने कालूराम को समझाया कि अब जो घर ढूँढना होगा उसमें यह सुनिश्चित करना होगा कि घर के जो प्राणी दिखें वो केवल घर की गृहस्वामिनी हो और कोई न हो। समझदारी के इस थूक के घूँट को वो निगलते हुए आगे बढ़ गए। और कुछ निगलने के लिए था भी नहीं उनके पास।
बहुत खोज-बीन के पश्चात एक स्त्री अपने घर के बाहर झाडू लगाती हुई दिखी। यह कालूराम का चौथा घर था। भिक्षाटन के लिए जितना दयनीय दिखाई देने की आवश्यकता थी कालूराम उससे कहीं अधिक दयनीय स्थिति को प्राप्त हो चुके थे। भूख से अतड़ियां कुलबुला रही थीं और आँखें बाहर को निकली जा रही थीं। कालूराम का अपना भीमकाय शरीर काबू से बाहर जा रहा था। दोनों पग तराजू के पलड़ों से पड़ रहे थे।
लुढ़कते हुए से वे उस स्त्री के पास पहुँचे। अपनी अतड़ियों की कुलबुलाहट में वह स्त्री की दशा देखना भूल गए। स्त्री की दयनीय, कृशकाय काया पर उनका ध्यान तब गया जब वे अपनी झोली फैला चुके थे। स्थिति कुछ ऐसी थी कि जितनी दयनीय भिक्षा मांगने वाले की स्थिति थी उससे कहीं ज़्यादा दयनीयता देने वाले के चेहरे से टपक रही थी। बेचारी स्त्री कुछ क्षण धर्म संकट में खड़े रहने के बाद बोली – “अभी-अभी दोपहर का चौका उठा है। देखती हूँ कि रात्रि के भोजन हेतु कुछ सामग्री बची-खुची हो तो ले आती हूँ।“
स्त्री अपनी रसोई के सारे घड़े-बर्तन उलटने के बाद एक मुठ्ठी चावल और आधा मुठ्ठी दाल लेकर प्रस्तुत हुई। भगवान की इस निष्ठुर परीक्षा पर उसकी रुलाई छूट रही थी। कालूराम अन्न की मात्रा देख रुलाई छूट रही थी। उन्होंने सोचा कि इन चार अन्न के दानों से मेरी तो जीभ भी गीली नहीं होगी। हाँ हो सकता है कि इस परिवार का रात का भोजन पूरा हो जाए। कालूराम ने भिक्षा लेने से मना कर दिया। कहा कि वह तो बस परीक्षा ले रहे थे और ढेरों आशीर्वाद देते हुए कालूराम आगे बढ़ गए।
कालूराम आगे तो बढ़ गए मगर जाएं कहाँ? बस्ती तो दो कदम पर खत्म हो गई। कालूराम ने आसमान की ओर देखा तो पाया कि सूरज ने उतरना शुरू कर दिया है। कालूराम को सोमनाथ की याद आई। तीसरे पहर में मिलना था। तेज़ कदमों से कालूराम खाली हाथ ही वापस लौट पड़े।
वापस आकर देखा तो सोमनाथ अपनी जगह पर खड़े मिले।
”कहो भाई! क्या-क्या भिक्षा मिली?”
कालूराम क्या बताएं? खाया-पिया कुछ नहीं बस खाली झोला लटकाए गए थे और खाली ही लटकाए वापस आ गए। कभी सोचा भी न था कि मांग कर खाना भी इतना कष्टकर हो सकता है। उस दिन को कोसने लगे जिस दिन भिक्षा को आजीविका बनाने का विचार कौंधा था और उस साधू को भी जो उस दिन जबरन भिक्षा लेने पर उतारू थी। न वह मिलता और न यह सब होता।
सोमनाथ ने कालूराम को झकझोरते हुए पूछना चाहा कि “कुछ कहो भाई”। मगर उससे झकझोरते न बना। अलबत्ता खुद झकझोरा गए और कुछ बोल न पाए। कालूराम की भी तंद्रा टूटी और एहसास हुआ कि कोई उन्हें हिलाने की चेष्टा में हिलकर रह गया है। उदास मन से उन्होंने अपना खाली झोला खोलकर दिखा दिया।
”ओह! कोई बात नहीं बंधु। आज तुम्हारा पहला दिन था। धीरे-धीरे आ जाएगा। सब्र का फल मीठा होता है।“
कालूराम चौकें। “फल” और “मीठा” यहां तो किसी ने कड़वे करेले तक को न पूछा भला फल और मीठा कौन देने लगा।
कालूराम ने खाने के चक्कर में बहुत देर से पानी तक न पीया था। और अब तो भूख की मारे चक्कर से आने लगे थे जिससे उसको अपने शरीर में कुछ भू-स्खलन जैसी स्थिति का आभास हो रहा था। वह वहीं एक पत्थर की शिला पर टिक गया। शिला उसके बैठने योग्य न थी इसलिए टिक ही गया।
तभी सोमनाथ ने अपना झोला खोला। देखकर कालूराम दंग रह गए। पूरी, कचौरियां, जलेबी के दोने, हलवा, परौंठे और तो और अब बगल में लटक रही हंडी पर भी उनकी दृष्टि गई। जाने उसमें क्या होगा, रबड़ी या रसमलाई।
”एक हलवाई के लड़के की शादी थी। उसने जी खोलकर दान दिया। मुझे दूसरे-तीसरे घर जाना ही नहीं पड़ा। यह भोजन हम दोनों के लिए काफी होगा।“
हांफते कालूराम की जान में जान आई। अब तक जो उनकी जीभ लटक कर बाहर हो रही थी अब होंठों को चाटने लगी।
“हाँ सोम भाई! तो देर किस बात की है। आओ यहीं यह कुँआ है। इसकी मुंडेर के पास बैठकर आत्मा की तृप्ति करते हैं और पानी भी……”
”नहीं कालूराम भाई नहीं। यह भिक्षा पहले गुरुजी को देनी होगी। जब तक वह भोग न लगाएंगे, हम इसे छू भी नहीं सकते।“
कालूराम सकते में आ गए। जिस कुँए के किनारे बैठ भोजन की कल्पना की थी वहाँ की मुंडेर से बस दो लोटा पानी पीकर वापस पड़े।
सारे रास्ते कालूराम अपने भिक्षुक बनने के निर्णय पर पछताते रहे और सोम के कंधे से लटकते झोले और हंडिया को देखते रहे। सोचते रहे कि कब जंगल आएगा, कब भोग लगेगा और कब भोग लगाएंगे।
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