कविता : काश…
काश… तुम्हें मालूम हो सकता,
कि तुम मेरे लिए क्या हो,
सुकून-ए-रूह हो मेरा,
दिल-ए-बेचैन की दवा हो,
बताऊँ मैं तुम्हें कैसे,
कि तुम मेरे लिए क्या हो,
तुम्हारे बिन कुछ नहीं मैं,
तुम्हीं मेरे पीर-ओ-मुर्शिद,
मंज़िल भी तुम्हीं मेरी,
और तुम ही रास्ता हो,
बताऊँ मैं तुम्हें कैसे,
कि तुम मेरे लिए क्या हो,
मेरे अश्कों में तुम शामिल,
मेरी मुस्कान में जाहिर,
छुपाऊँ मैं तुम्हें कैसे,
हर शै में नुमाया हो,
बताऊँ मैं तुम्हें कैसे,
कि तुम मेरे लिए क्या हो,
तुम्हीं आगाज़ हो मेरा,
तुम्हीं अंजाम हो मेरा,
तुम्हें भूलूँ भी तो कैसे,
जीने का आसरा हो,
बताऊँ मैं तुम्हें कैसे,
कि तुम मेरे लिए क्या हो,
मेरी रातों की चाँदनी तुम,
मेरे गीतों की रागिनी तुम,
तरन्नुम हो शायरी का,
मेरी गज़लों का काफिया हो,
बताऊँ मैं तुम्हें कैसे,
कि तुम मेरे लिए क्या हो,
मगर ये भी हकीकत है,
कहूँगा कुछ नहीं तुमको,
तुम वो ख्वाब हो मेरे,
ना पूरा हो सकेगा जो,
मेरे बस में अगर होता,
तुम्हें सब से छुपा लेता,
तुम्हें तो क्या मैं इस सारी,
दुनिया को बता देता,
कि तुम मेरे लिए क्या हो,
पर अब मुमकिन नहीं है ये,
डरता हूँ ज़माने से,
किसी को भी बताने से,
कि तुम मेरे लिए क्या हो,
बताऊँ मैं तुम्हें कैसे,
कि तुम मेरे लिए क्या हो,
आभार सहित :- भरत मल्होत्रा।