कहानी

अजकर करे न चाकरी – भाग – 3 (अंतिम भाग)

अभी आधा रास्ता बाकी था मगर अब कालूराम से रहा नहीं गया। उनके भूख से कुलबुलाते दिमाग के सब दरवाजे खिड़कियां, रोश्नदान, बंद होने के बावजूद एक छिद्र से रोश्नी की एक किरण भीतर आ ही गई।

“भई सोमनाथ! तुम बहुत दूर से यह भारी बोझ उठा रहे हो। लाओ थोड़ी देर मैं ले चलूँ।“

”नहीं कालू भाई मुझे कोई कष्ट नहीं हो रहा।“

”अच्छा…”

फिर कुछ सोचकर कालूराम ने दुबारा दिमाग का गुलेल चलाया कि शायद इस बार चिड़िया गिर जाए।

”मुझे अपनी न सही गुरुजी की सेवा करने का अवसर समझकर भार उठाने दो। भिक्षा तो ला न सका। और कुछ नहीं तो कम से कम यही।“

चिड़िया गिर गई और सोमनाथ ने अपना झोला कालूराम को दे दिया। कालूराम भूख से व्याकुल थे। सोमनाथ की नज़रें बचाकर दो कचौड़ियां गटक गए।

पर दो कचौड़ियों से कालूराम का क्या होना था। इन दो कचौड़ियों ने तो आग में घी का ही काम किया। उन कुलबुलाती अंतड़ियों में वो दो कचौड़ियाँ जाने कहाँ समा गई। मगर जिह्वा पर स्वाद ठहर गया जिसने कालूराम को और बेचैन कर दिया। चोरी-छुपे खाएं तो खांए भी कितना, ज़्यादा से ज़्याद दो और। मगर बस, अब इससे ज़्यादा पर तो पकड़े जाने का भय था तो कालूराम और अधिक न खा सके।

जंगल भी पास आ गया था। सोमनाथ ने क्षितिज की ओर देखा। सूर्यास्त को अधिक समय नहीं बचा था।

”जल्दी करो कालूराम अगर सूर्यास्त हो गया तो गुरुजी भोजन ग्रहण नहीं करेंगे और अगर वो नहीं करेंगे तो हम भी नहीं कर पाएंगे।“

यह सुनते ही कालूराम गिरते-पड़ते, फिर उठते-गिरते उबाड़-खाबड़ रास्तों से जंगल में तेज़ी से चलने लगे। हड़बड़ाए से दोनों गुरु जी के समक्ष उपस्थित हुए।

देखा तो गुरुजी स्नान के बाद ध्यान में लीन थे। सोमनाथ चुपचाप गुरुजी के सामने नतमस्तक हो खड़े हो गए। कालूराम भी देखादेखी खड़े हो गए। मगर ध्यान तो सारा झोले पर था। अच्छा है कि हंडिया सोमनाथ के पास थी वरना एकाग्रता बनाने में दिक्कत  होती। कालूराम का हाथ बार-बार झोले के भीतर जाता मगर इस भ्रम में कि गुरुजी कहीं हल्के से पलक उठाकर देख तो नहीं रहे, वह वापस खींच लेता था।

जंगल में पहले ही बहुत रोश्नी नहीं थी। मगर अब तो देखते ही देखते अंधेरा छा गया। गुरुजी के अन्य शिष्यों ने जगह-जगह आग का प्रबंध किया। एक आग का घेरा गुरुजी और दोनों शिष्यों के बीच भी जल रहा था।

कालूराम यह सब व्यवस्था देख के परेशान हो रहे थे। उनके दिल में ज़ोरों से नगाड़े बज रहे थे कि तभी गुरुजी ने आंखें खोली और कालूराम खुशी से उछ्ल तो न पाए मगर थरथरा के रह गए। फिर दोनों ने फटाफट गुरुजी के सामने सारे व्यंजन लगा दिए।

गुरुजी ने व्यंजनों की ओर बिना ताके ही उद्घोषणा करते हुए कहा-

“आज मेरे गुरुजी ने मेरे ध्यान में आकर मुझे उपवास रखने की प्रेरणा दी है। आज मैं भोजन ग्रहण नहीं करूँगा।“

और अपने विश्राम स्थल की ओर चल दिए।

यहाँ कालूराम जंगल में लगभग एक छोटा-मोटा भूकंप सा लाते हुए थपाक से धरा पर गिर पड़े। सोमनाथ कालूराम की व्यथा को समझ रहे थे। सो उसे सांत्वना देने लगे।

”कोई बात नहीं कालूराम। यह तुम्हारी परीक्षा की घड़ी है। आग में गलकर ही खरा सोना निकलता है। तुम भी सच्चे शिष्य बनोगे। देख लेना। बस आरंभ की ये कठिन घड़ियाँ तुम्हें झेलनी होंगी। माना दो दिन का उपवास करना बहुत कठिन है। मगर तुम विचलित न होना। तुम सच्चे मन से प्रयास करोगे तो अवशय सफल होवोगे।“

कालूराम ठिठके। “दो दिन….. तुमने दो दिन क्यूँ कहा भाई या मेरे कान बज उठे हैं।“

”क्योंकि कल एकादशी है और एकादशी के दिन न तो गुरुजी भोग लगाएंगे और न हम भोजन कर पाएंगे।“

यह सुनते ही ज़मीन पर बैठे कालूराम वहीं धराशायी होते हुए लोट गए। सोमनाथ कालूराम को उठाने के लिए दौड़े। मगर निकट पहुँचकर उनको अपने सामर्थ्य का आभास हो आया और उन्होंने उसे उठाने की बजाय केवल मौखिक सांत्वना देने में दोनों की भलाई समझी।

”उठो वीर कालूराम। हिम्मत न हारो मित्र। यह कठिनाइयां पार हो जाएंगी। अभी चलकर अपनी शय्या पर लेटो। मैं भी हाथ-मुंह धोकर सोने के लिए उधर ही आता हूँ। तुम्हें जब थोड़ा आराम हो जाए, तुम भी हाथ-मुंह धोकर आराम करना।“

सोमनाथ तालाब की ओर बढ़ गए। कालूराम धीरे-धीरे अपनी चटाई पर जा लेटे। रह-रहकर कचौड़ियों की सुगंध उनकी नाक में उठने लगी। जीभ बाहर निकलकर होंठो को चाट-चाटकर उनका स्वाद मांगने लगे। पेट में मरोड़ पड़ने लगे। कालूराम पेट दबाए करवटें लेते रहे।

आधी रात का समय बीत चुका था। कालूराम के मस्तिष्क में पिछले दो दिनों की घटनाओं ने चित्र बनाए जिन्हें देखकर वे सिहर उठे। सिहर तो उठे साथ में बिस्तर से भी उठे।

सोमनाथ ने कच्ची नींद में भारी-भरकम काया को हिलते-डुलते देखा तो पहले तो घबरा गए कि हाथी आ गया। मगर ध्यान से देखने पर हाथी का बच्चा लगा और वे दम लगाकर चीखना चाहते थे। मगर डर के मारे गले में घिग्घी सी बंध गई थी सो चूहे की सी आवाज़ निकालते हुए बस “हाथी” कह कर रह गए।

प्रत्युत्तर में कालूराम ने पूछा “कहां है?”

तब जाकर सोमनाथ को अहसास हुआ कि यह तो कालूराम है।

“अरे भाई तुम! तुमने तो डरा ही दिया। इतनी रात को जा कहाँ रहे हो।“

“हाथ-मुँह नहीं धो सका। अब धोकर ही आराम करूँगा।“

सोमनाथ करवट बदलकर पुन: नींद में चले गए। वो तो नींद में चले गए मगर कालूराम भी चले गए…..अपने घर।

अब कालूराम अपने घर की चारपाई पर लेटे-लेटे सोच रहे थे कि इतने में घर में एक चोर घुसा। कालूराम हिले नहीं बस अपनी जगह लेटे रहे क्योंकि वे भली प्रकार जानते थे कि घर में कुछ चुराने को है ही नहीं और चोर अपने आप ही चला जाएगा। और हुआ भी यही, चोर अपने आप जाने लगा।

मगर जैसे ही वह जाने को हुआ कि कालूराम एक भयंकर विचार के  प्रकोप से ग्रस्त हो उठे।

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*नीतू सिंह

नाम नीतू सिंह ‘रेणुका’ जन्मतिथि 30 जून 1984 साहित्यिक उपलब्धि विश्व हिन्दी सचिवालय, मारिशस द्वारा आयोजित अंतरराष्ट्रीय हिन्दी कविता प्रतियोगिता 2011 में प्रथम पुरस्कार। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में लेख, कहानी, कविता इत्यादि का प्रकाशन। प्रकाशित रचनाएं ‘मेरा गगन’ नामक काव्य संग्रह (प्रकाशन वर्ष -2013) ‘समुद्र की रेत’ नामक कहानी संग्रह(प्रकाशन वर्ष - 2016), 'मन का मनका फेर' नामक कहानी संग्रह (प्रकाशन वर्ष -2017) तथा 'क्योंकि मैं औरत हूँ?' नामक काव्य संग्रह (प्रकाशन वर्ष - 2018) तथा 'सात दिन की माँ तथा अन्य कहानियाँ' नामक कहानी संग्रह (प्रकाशन वर्ष - 2018) प्रकाशित। रूचि लिखना और पढ़ना ई-मेल [email protected]