सामाजिक

हिंदी में अँग्रेजी शब्दों और रोमन लिपि की स्वीकार्यता आखिर किस हद तक ? – स्नेह ठाकुर

“हिंदी में अँग्रेजी और रोमन लिपि की स्वीकार्यता आखिर किस सीमा तक?” – इस एक ही प्रश्न में समाहित द्विप्रश्नीय प्रश्न के दूसरे भाग – “हिन्दी में रोमन लिपि की स्वीकार्यता आखिर किस सीमा तक” – का उत्तर पहले देना चाहूँगी क्योंकि मेरी मान्यता है कि यदि लिपि ही नहीं रह जाएगी तो भाषा कैसे रह पाएगी. यदि रोमन लिपि प्रचलित हो प्रबलतम हो गई तो क्या हिन्दी की देवनागरी लिपि का शनै:-शनै: लोप अवश्यंभावी नहीं हो जाएगा? लिपि गई तो अपने साथ-साथ साहित्य व संस्कृति को नहीं ले जाएगी? यदि हिन्दी को जीवित रखना है, हिन्दी के अस्तित्व को बनाये रखना है तो रोमन लिपि की स्वीकार्यता का प्रश्न ही कहाँ उठता है? और जब हिन्दी को जीवित रखने हेतु रोमन लिपि की स्वीकार्यता अस्वीकार है तो फिर उसकी सीमा का भी प्रश्न ही कहाँ उठता है?

आज जब कि देवनागरी लिपि की महत्ता सर्वव्यापी, विश्वव्यापी है, तो भारत उस हिन्दी के लिए जिसे देवनागरी लिपि में लिखा जा रहा है, ‘हिंदी में रोमन लिपि की स्वीकार्यता आखिर किस सीमा तक ?’ के प्रश्न पर पहली बात तो विचार ही क्यों कर रहा है, यही आश्चर्य की बात है.

हिन्दी विश्व-भाषा बनने के पथ पर अग्रसर है, इसमें कोई संदेह नहीं है. आठवें विश्व हिन्दी सम्मेलन न्यूयॉर्क में, जिसमें कैनेडा से विशिष्ट अतिथि होने का सौभाग्य मुझे प्राप्त हुआ था, यू.एन. के मुख्य सभागार में, उद्घाटन सत्र में, संयुक्त राष्ट्र के महासचिव श्री वान की मून के अधरों से निकले हिन्दी के कुछ वाक्यों ने तथा सभी भारतीय एवं प्रवासी भारतीयों के कंठों से निकली हिन्दी ने उस महत्वपूर्ण स्थान में अपनी उपस्थिति का डंका बजा दिया था. अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर हिन्दी के उद्घोष की शंख-ध्वनि गूँज उठी थी.

हिन्दी के भूमंडलीकरण का साक्षी कैनेडा में भारत के प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी का तालियों की गड़गड़ाहट में दिया गया वक्तव्य है. अमेरिका में भी मेडीसन स्क्वैयर और यू.एन. हेतु हिन्दी में दिए गए उनके वक्तव्य पर हुईं तालियों की अनुगूँज हिन्दी के भूमंडलीकरण का प्रमाण है. अन्य देश व स्थान भी जहाँ-जहाँ भारत के प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी ने हिन्दी की स्वर-लहरी लहराई है, हिन्दी के प्रति प्रेम के साक्ष्य हैं.

“१०वें विश्व हिन्दी सम्मेलन” की चर्चाएँ भाषा की दृष्टि से सारगर्भित रहीं. यह मेरा सौभाग्य है कि मुझे आठवें विश्व हिन्दी सम्मेलन में कैनेडा से विशिष्ट अतिथि के रूप में आमंत्रित किया गया था और १०वें विश्व हिन्दी सम्मेलन में “विश्व हिन्दी सम्मान” से सम्मानित किया गया. तात्पर्य यह कि मैं दोनों सम्मेलनों की विषय-वस्तु की साक्षी रही.

हिन्दी के इस भूमंडलीकरण के दौर में रोमन लिपि द्वारा उसके रास्ते में आनेवाली उच्चारण सम्बन्धी समस्या पर विचार करना पड़ेगा, विशेषरूप से विदेशों में हिन्दी के परिपेक्ष्य में जहाँ हिन्दी का ज्ञान सीमित है. वर्तनी भाषा का अनुशासित आवर्तन है. हिन्दी के शब्दों की लिपिबद्धता जब रोमन लिपि में की जाएगी तो इस अनुशासन का पालन संभव न होगा, सब अपने-अपने ढंग से शब्दों को लिखेंगे. भाषा लोक-व्यवहार के स्तर पर बोलचाल की हो या साधारण या विशिष्ट लेखन की, भाषा के एक मानक स्वरूप की आवश्यकता अवश्य होती है. उच्चारण हमें कभी-कभी हास्यास्पद, अजीबोगरीब स्थिति में डाल देता है. बंगाली भाषी, उत्तर प्रदेश निवासी के घर भजन संध्या का आनंद उठा, उस आनंद की पुनरावृत्ति अपने घर करवाने की सोच विनम्र हो पड़ोसी को अपनी हिन्दी में न्योता दे आता है कि आज हमारे घर भोजन है परिवार सहित आइएगा. पड़ोसी भोजन करने पहुँचते हैं और वस्तुत: भूखे पेट न होंहि भजन गोपाला की स्थिति में पहुँच, भूख से पीड़ित आँतड़ियों को दबाते हुए पेट पकड़ कर बैठ जाते हैं. बंगाली मोशाय “भजन” को “भोजन” उच्चारित कर निमंत्रित कर रहे थे और उत्तर प्रदेशी महाशय अपनी समझ में उनके यहाँ “भजन” करने नहीं “भोजन” करने गए थे.

कुछ महीने पहले एक पंजाबी भाषी महिला ने मेरा हाथ बड़े प्यार से पकड़कर कहा “मुझे आपका उपन्यास पढ़ने का बड़ा शोक है.” मैं अचम्भित हो उन्हें देखती ही रह गई क्योंकि उनके द्वारा बहुत ही स्नेहपूर्वक पकड़ा हुआ मेरा हाथ मुझे किसी भी स्थिति में उनकी शोक की अनुभूति से अभिसिंचित नहीं कर रहा था कि उन्होंने फिर कहा, “सनेह जी, मैंने आपका उपन्यास ‘कैकेयी चेतना-शिखा’ पढ़ा. मुझे उसे पढ़ने का शोक है’. लेखक को पाठक की हर प्रतिक्रिया शिरोधार्य होनी चाहिए. जहाँ पाठक का अपना विशिष्ट व्यक्तित्व है, उसकी अपनी ग्रहणशीलता है, पाठक सदैव लेखक की भावना से ही संचालित हो, अनुप्राणित हो यह आवश्यक नहीं है; वहीं यद्यपि कि साहित्यकार की सबसे बड़ी विशेषता संप्रेषणीयता ही है, तथापि साहित्यकार की हर कृति इतनी सौभाग्यशाली नहीं भी हो सकती है कि वह अपने उसी रूप में पाठक के मन-मस्तिष्क पर छा जाए जिस भावना को लेकर साहित्यकार ने उसे रचा है. यह सब कुछ सैद्धांतिक रूप से जानते-समझते हुए भी मानव स्वभावानुसार कुछ आहत हो बिन सोचे मेरे मुँह से अनायास निकल पड़ा कि माफ़ कीजिएगा “कैकेयी चेतना-शिखा” उपन्यास का प्रकाशन के एक वर्ष बाद ही द्वितीय संस्करण निकलने से बहुत पहले ही उसे राष्ट्रपति भवन पुस्तकालय में रखा गया है, साहित्य अकादमी म. प्र. द्वारा अखिल भारतीय ‘वीरसिंह देव’ पुरस्कार से सम्मानित किया गया है, क्षमा चाहती हूँ कि आपको उसे पढ़ने पर शोक हुआ….’ उन्होंने मेरी पूरी बात सुने बिना बीच में ही काटते हुए बड़े प्यार से मेरा हाथ थपथपाते हुए कहा, ‘अजी बहनजी! मुझे पता है, मैं कह तो रही हूँ कि मुझे वह पढ़कर बड़ा अच्छा लगा. मुझे आपके उपन्यास पढ़ने का बहुत ही शोक है. मैं तो आपका नया उपन्यास “लोक-नायक राम” भी बड़े शोक से पढ़ रही हूँ.’ अब उनके शोक – शौक़ को मैं समझी.

जब ‘भजन’ और ‘भोजन’, ‘शौक़’ और ‘शोक’ अपने ही देश के व्यक्तियों का उच्चारण गुदगुदाती गलतफ़हमी पैदा कर सकते हैं तो रोमन लिपि का अपनी-अपनी डफ़ली, अपना-अपना राग बड़ी समस्या पैदा कर सकता है, विषेशरूप से विदेशों में जहाँ मूल भाषा हिन्दी नहीं है. बोलचाल में आमने-सामने के संवाद की स्थिति में स्पष्टीकरण सम्भव है पर रोमन लिपि में शब्दों की एकरूपता का अभाव भ्रम उत्पन्न कर सकता है जिससे अर्थभेद हो सकता है.

शुद्ध भाषा लिखने-पढ़ने के लिए शुद्ध उच्चारण बहुत महत्वपूर्ण है. हिन्दी के संदर्भ में तो यह कथन और भी सत्य है, क्योंकि हिन्दी ध्वन्यात्मक भाषा है. हिन्दी जिस प्रकार बोली जाती है, प्राय: उसी प्रकार लिखी भी जाती है. इसीलिए हिन्दी लिखने-पढ़ने वालों के लिए इसका शुद्ध उच्चारण आवश्यक है. जो शुद्ध उच्चारण करेगा, वह शुद्ध लिखेगा भी.

हिन्दी देवनागरी लिपि में लिखी जाती है, और जैसा कि मैंने ऊपर कहा है कि यह ध्वन्यात्मक लिपि है. देवनागरी की सबसे बड़ी विशेषता है कि इसमें जैसा लिखा जाता है वैसा ही बोला जाता है, जैसा बोला जाता है वैसा ही लिखा जाता है जबकि दूसरी भाषाओं में यह बात नहीं है. अत: विषेशरूप से आज जब हिन्दी की वैश्विक पहचान बन रही है, ऐसी स्थिति में अन्य भाषा-भाषियों के लिए देवनागरी लिपि में हिन्दी सीखना सहज होगा.

इस दिशा में एक और बात विचारणीय है, ध्यान देने योग्य है कि जब हिन्दी की देवनागरी लिपि संसार की सर्वाधिक सर्वोत्तम वैज्ञानिक लिपि के रूप में हमें परम्परा से प्राप्त है तो फिर हम क्यों न इसका सदुपयोग करें. कम्प्यूटर के इस युग में सार्वभौम लिपि के रूप में खरा उतर सकने की सामर्थ्य देवनागरी लिपि में ही है. सबसे अधिक शुद्धता के साथ सभी भाषाओं की ध्वनियों को व्यक्त करने की क्षमता इस लिपि में है. इस अक्षरात्मक लिपि की ध्वन्यात्मक विशेषता इसमें शब्दों को उनके उच्चारणों के ही अनुरूप लिपिबद्ध किए जा सकने की सामर्थ्य पैदा करती है तो हम क्यों ऐसी शिखरोन्मुख सर्वोच्च श्रेणी की लिपि को त्याग कर हिन्दी के लिए रोमन लिपि का प्रयोग करें? हमें वैज्ञानिक धरातल पर देवनागरी लिपि को आगे बढ़ाना है न कि रोमन लिपि को आगे लाकर अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मारनी है!

एक बार रोमन लिपि चल गई, नई पीढ़ी में प्रबलतम प्रचलित हो गई, जैसी कि आशंका उठाई जा रही है, तो हर कोई भाषा को तोड़ेगा, मरोड़ेगा, उसका उच्चारण अपनी सुविधानुसार कर उसके रूप के साथ खिलवाड़ कर अर्थ का अनर्थ कर देगा. अत: भाषा की शुद्धता हेतु हिन्दी की देवनागरी लिपि की सुरक्षा अत्यावश्यक है. हमें हिन्दी की जड़ सींचनी है न कि कुछ लोगों द्वारा रोमन लिपि की तथाकथित सुगमता की बातों में आकर हिन्दी के पत्तों को सींच, केवल उसकी ऊपरी सतह पर थोड़ा-सा छिड़काव कर उसकी जड़ को खोखला करना है.

अब रही बात, “हिंदी में अँग्रेजी की स्वीकार्यता किस सीमा तक ?” तो यह कहना चाहूँगी कि भाषा तो बहता पानी है जो न केवल अपने कगारों को समृद्ध करता है वरन् उससे स्वयं भी समृद्ध होता है. हिन्दी में विदेशी भाषा के शब्दों के समावेश के पक्ष में हूँ बशर्ते वो शब्द हमारी भाषा को समृद्ध करें. अपनी भाषा हिन्दी के शब्दों का लोप करके दूसरी भाषा के शब्दों को ग्रहण करने के पक्ष में नहीं हूँ. पर जो शब्द हमारी हिन्दी भाषा में नहीं है, या ऐसे उन वर्तमान शब्दों के दूसरी भाषा के विकल्प शब्द जो तथ्य की अर्थपूर्ण पूर्णरूपेण अभिव्यक्ति ज़्यादा अच्छी तरह करने की सामर्थ्य रखते हैं, ऐसे सक्षम शब्दों का समावेश हानिकारक न होगा. साथ ही जो शब्द हमारी भाषा में नहीं हैं उनको दूसरी भाषा से लेकर हिन्दी को समृद्ध करने के पक्ष में भी हूँ. वो शब्द जो हिन्दी में नहीं थे और जिनकी रचना की गई है, उदाहरणार्थ रेल या ट्रेन हेतु “लौहपथगामिनी”, ऐसी स्थिति में प्रचलित छोटे सहज-सुगम शब्द रेल या ट्रेन का समावेश अनुचित नहीं. भाषा जीवंत है. समयानुकूल सभ्यता और संस्कृति के विकास के साथ-साथ उसमें नए शब्दों का जुड़ना एक अनिवार्यता है. साथ ही आज की अनिवार्यता है हिन्दी का गर्व के साथ प्रयोग. हिन्दी में अँग्रेजी या दूसरी भाषा के शब्दों का समावेश करें या नहीं इससे भी ज़्यादा न केवल यह बात महत्वपूर्ण है वरन् यह आज की अनिवार्यता भी है कि हम हिन्दी का गर्व और गौरव के साथ प्रयोग करें. यदि हमें अपनी भाषा हिन्दी को जीवित रखना है तो उसका निरंतर प्रयोग अति आवश्यक है.

मैं साथ ही यह भी कहना चाहूँगी कि हिन्दी प्रचार-प्रसार एवं हिन्दी रक्षा न केवल भारतवासियों का कर्तव्य व दायित्व है वरन् यह प्रवासी भारतीयों का भी कर्तव्य व दायित्व है. भाषा संस्कृति की वाहिनी है. भारतीयता, भारतीय संस्कृति को जीवित रखना है तो हिन्दी को जीवित रखना आवश्यक है. हिन्दी का लोप अँग्रेजी के नये-पुराने आवश्यक शब्दों के समावेश से नहीं वरन् हिन्दी के प्रति हमारी हीन मानसिकता से होगा. हिन्दी का लोप हिन्दी के प्रति हमारी हीन भावना से होगा.

मुझे इस बात की चिंता है कि हिन्दी कैसे अनवरत प्रगति के पथ पर चलती रहे, उसका प्रचार-प्रसार दिन-दूना रात-चौगुना कैसे हो, उसका मार्ग अवरुद्ध न हो. अनेक भाषाओं का ज्ञान व्यावहारिक रूप से एवं मस्तिष्क के लिए भी अत्यंत हितकारी है पर अपनी भाषा से नाता तोड़कर नहीं. अपनी भाषा सर्वोपरि होनी चाहिए. अत: शब्दों के समावेश के प्रश्न से ज़्यादा अहम है कि हम हिन्दी के प्रति हीन मानसिकता में परिवर्तन लाएँ. हमारी हिन्दी पर गर्व करने की भावना हिन्दी के उत्थान हेतु अधिक लाभकारी सिद्ध होगी. जब हम देश-विदेश में सर ऊँचा कर गर्व से हिन्दी बोलेंगे तो भाषा अपनी पूर्णता और समृद्धता में स्वयं ही इस प्रकार प्रस्फुटित होगी कि उसके लोप होने का प्रश्न ही न उठेगा.

अँग्रेजी के कई शब्द जन मानस में इतने रच-बस गए हैं, प्रचलित हो गए हैं कि कदाचित उनको भाषा से निकालना असंभव नहीं तो कम से कम मुश्किल अवश्य हो जाएगा. यह हम पर निर्भर करता है कि हम किन शब्दों का समावेश कर रहे हैं. प्रश्न यह है कि जिन अँग्रेजी शब्दों के हिन्दी या हिंदुस्तानी शब्द हैं, जो क्लिष्ट भी नहीं हैं, और प्रचलित भी हैं या आसानी से उपयोग में लाए जा सकते हैं, क्या उनके लिए भी अँग्रेजी शब्दों का प्रयोग स्वीकार होगा? या होना चाहिए? यदि हाँ, तो ऐसा क्यों? यह एक बहुत ही अहम प्रश्न है कि ऐसे शब्दों के लिए हम अपनी भाषा के शब्दों के प्रयोग के पक्ष में क्यों नहीं हैं? हमें अपनी भाषा को समृद्ध करना है अत: जिन शब्दों का हमारे पास समाधान नहीं है उन्हें अँग्रेजी या किसी विदेशी भाषा से लेना उचित प्रतीत होता है पर जो शब्द हमारे पास हैं अपने उन स्वदेशी शब्दों का प्रयोग अपनी भाषा से निकाल कर उनकी जगह विदेशी अँग्रेजी भाषा के शब्दों को ढूँसना क्या उचित है? क्या यह अनावश्यक नहीं है? इसका औचित्य क्या है? इसका उत्तर हर हिन्दी भाषी, भारतीय व प्रवासी भारतीय को अपनी अंतरात्मा से पूछना होगा.

साथ ही यदि हम अँग्रेजी या किसी भी विदेशी भाषा का शब्द हिन्दी में अपना रहे हैं तो उसे विकृत न कर, उसके मूल रूप में उसे उसी तरह अपनाना अधिक तर्कसंगत लगता है. उदाहरणार्थ मुझे बताया गया है कि अँग्रेजी शब्द कन्फ्यूज़, कन्फ्यूज़न का हिंदीकरण कनफूज, कनफूजन है. पहली बात तो ऐसे जो शब्द हमारे पास हिन्दी में हैं उसे अँग्रेजी से लेने का औचित्य ही नहीं बनता. हिन्दी अर्थ-सम्पदा में बहुलता से पाये गए ऐसे शब्दों के हिंदीकरण की आवश्यकता ही क्यों है! हम ऐसे शब्दों को लें हीं क्यों जो हिन्दी-सम्पदा में सहजता, सुगमता से प्राप्त हैं. अँग्रेजी के उन शब्दों को जिन्हें किसी कारणवश हम ले रहे हैं तो उन्हें उसी रूप में ही क्यों न लिया जाए? उन्हें अपभ्रंश करके क्यों अपनाया जाए? क्या अपभ्रंश करने से वह शब्द हमारा हो जाएगा? क्या उसका उद्गम स्थान अँग्रेजी नहीं रहेगा? अन्य भाषाएँ भी तो दूसरी भाषा के शब्दों को जस-का-तस ही लेती हैं. हाँ! यह बात अलग है कि हम जबर्दस्ती किसी शब्द का हिंदीकरण न करके स्वाभिमानपूर्वक अपनी उपयोगी शब्दावली की रचना स्वयं करें.

जहाँ अनायास किसी शब्द का उच्चारण समस्या पैदा कर सकता है, अर्थ का अनर्थ कर सकता है वहाँ सायास किसी शब्द को विकृत करके स्वीकारना क्या उचित होगा?

हिन्दी आम जनता के बीच सम्मान पाती हुई अपना राष्ट्रीय क्षितिज तैयार कर चुकी है. स्वतंत्रता की लड़ाई में तो यह सम्पूर्ण देश की अस्मिता के साथ जुड़ चुकी थी और भाषा के तौर पर इसने नेतृत्व किया था. अब हिन्दी को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अपना विस्तार करना है. अंतर्राष्ट्रीय क्षितिज को अपनी उपयोगिता के सूर्य से उद्भासित कर विश्व को चकाचौंध करना है जो न विदेशी भाषा का पल्लू पकड़ कर होगा और ना ही रोमन लिपि से. हाँ, हिन्दी बड़ी बहन की तरह प्रांतीय भाषाओं व अन्य भाषाओं के शब्दों को अपने आँचल में सहेज, उनके प्रति बड़ी सहोदरा जैसी स्नेह-सिक्त उदारमना हो, स्वयं को व अपनी जननी को गौरवान्वित करने की क्षमता अवश्य ही रखती है, इसमें कोई संदेह नहीं है ।

स्नेह ठाकुर

संपादक-प्रकाशक ‘वसुधा’ हिन्दी साहित्यिक त्रैमासिक पत्रिका, लिम्का बुक रिकॉर्ड होल्डर

One thought on “हिंदी में अँग्रेजी शब्दों और रोमन लिपि की स्वीकार्यता आखिर किस हद तक ? – स्नेह ठाकुर

  • विभा रानी श्रीवास्तव

    रोमन कहाँ पर लिखा मान्य नहीं होना चाहिये ?

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