ग़ज़ल
इतनी बड़ी दुनिया में तेरी एक शख्स हमारा हो ना सका
हम थोड़ा-थोड़ा रोज़ मरे जीने का सहारा हो ना सका
वो कौन हैं जिनकी उम्र कटी कहकहों और ठहाकों में
अपना तो ज़रा सा हँसना भी लोगों को गवारा हो ना सका
दो-चार दिनों से ज्यादा कहीं हम टिक ना पाए सारी उमर
मेरे सच का झूठों की बस्ती में गुज़ारा हो ना सका
आँख से आँख मुहब्बत से इक बार मिला ली है जिसने
उसके बाद कभी फिर खुश वो दर्द का मारा हो ना सका
जाने क्या बात है तुझमें कि जो भी आया तेरे दर पर
उठकर जाने के काबिल फिर वो बेचारा हो ना सका
अब तुमको होगा एहसास कि तड़पना किसको कहते हैं
तुम जिसके लिए मेरे ना हुए वो भी तो तुम्हारा हो ना सका
— भरत मल्होत्रा
बहुत शानदार ग़ज़ल !