कहानी

बुआजी

बात कई साल पुरानी है. एक उच्चशिक्षित युवक के विवाह की बात कई जगह चल रही थी. युवक उच्चपदस्थ था और विदेश में था, अतः अभिभावकों को कोई चिंता तो नहीं थी, फिर भी एक बार जब बात चल ही निकली, तो सिरे लगने की फ़िक्र होना स्वाभाविक ही है, सो उन्हें भी थी. एक युवती के अभिभावकों ने समाचार पत्र में इश्तहार देखकर अपनी बिटिया के लिए समुचित वर-घर से प्रभावित होकर अपनी बिटिया का बॉयोडाटा, फोटो और जन्मपत्री आदि भेज दिए और युवक की जन्मपत्री की मांग की. युवक के अभिभावकों ने जन्मपत्री तुरंत भेज दी. युवती के अभिभावकों ने जन्मपत्री मिलवाई. न जाने क्यों पंडित जी को बात जंची नहीं, सो उन्होंने फ़रमाया, कि यह विवाह तो नहीं ही हो सकता. युवती के अभिभावकों को निराशा तो हुई, पर वे इस रिश्ते को कतई छोड़ना नहीं चाहते थे, सो फोन पर हामी भर दी. युवक के अभिभावकों ने सोचा जन्मपत्री मिल गई होगी, इसलिए हां कह दी है. रिश्ता उन्हें भी पसंद था, सो वे भी खुश थे.

आप तो जानते ही हैं, कि अपने देश में घर के बड़े-बुज़ुर्गों की बात को कैसे मान दिया जाता है! यहां भी ऐसा ही हुआ. युवती के पिताश्री की बुआजी किसी कारणवश उनके साथ ही रहती थीं. अब रहती थीं, तो सुबह-शाम भोजन भी उनके परामर्श से ही बनता था. बाज़ार से कुछ शॉपिंग होती, तो भी उन्हीं की पसंद-नापसंद का ध्यान रखा जाता. जो चीज़ उन्हें पसंद न आती, उसे तुरंत वापिस कर दिया जाता. यानी कि वे घर की सर्वेसर्वा बन बैठी थीं. उनको जब इस रिश्ते के बारे में पता चला, तो उन्होंने तानाशाही फ़रमान दे दिया, कि जब पंडित जी ने रिश्ता उपयुक्त नहीं समझा, तो उसे मानना ही चाहिए. लड़की की ज़िंदगी का सवाल है. कल को कोई ऊंच-नीच हो गई, तो पछताओगे. अब भला ऐसे में अभिभावक एक कदम भी आगे कैसे बढ़ाते! उन्होंने तुरंत फोन से युवक के अभिभावकों को सूचित करते हुए बताया, कि उन्हें इंकार करना अच्छा नहीं लग रहा, लेकिन हमारी बुआजी नहीं मान रहीं, इसले वे मजबूर हैं.

इसके बाद भी युवती के अभिभावक चैन नहीं पा सके. उन्होंने दूसरे पंडित जी को जन्मपत्रियां दिखाईं. जन्मपत्रियां देखते-देखते पंडित जी के नेत्र विस्फ़ारित होते जा रहे थे. उन्होंने निर्णय दिया, कि बिटिया के लिए इतना अच्छा रिश्ता मिलना मुश्किल है, तुरंत हां कर दीजिए. अभिभावक खुश होते घर आए, लेकिन बुआजी का तानाशाही फ़रमान जस-का-तस रहा. उनका मानना था, कि पहले पंडित जी को बात नहीं जंची, तो फिर उस पर पुनर्विचार करना भी उचित नहीं. अब राय तो उन्हीं की चलनी थी, सो चली. एक बार फिर युवती की माताश्री ने युवक की माताश्री से बात कर यह बात बताई. ख़ैर युवक का विवाह तो हो गया, उसके बच्चे भी मिडिल स्कूल में पहुंच गए. सोशल मीडिया की सक्रियता के चलते इतने सालों बाद दोनों ओर के अभिभावकों का आमना-सामना हो गया. पता चला, कि अब तक उस युवती का विवाह नहीं हो पाया था. बुआजी खुद ही अपने थोपे हुए निर्णय पर बहुत पछता रही थीं, उन्होंने अब किसी पर भी अपना फैसला थोपना छोड़ दिया है.

*लीला तिवानी

लेखक/रचनाकार: लीला तिवानी। शिक्षा हिंदी में एम.ए., एम.एड.। कई वर्षों से हिंदी अध्यापन के पश्चात रिटायर्ड। दिल्ली राज्य स्तर पर तथा राष्ट्रीय स्तर पर दो शोधपत्र पुरस्कृत। हिंदी-सिंधी भाषा में पुस्तकें प्रकाशित। अनेक पत्र-पत्रिकाओं में नियमित रूप से रचनाएं प्रकाशित होती रहती हैं। लीला तिवानी 57, बैंक अपार्टमेंट्स, प्लॉट नं. 22, सैक्टर- 4 द्वारका, नई दिल्ली पिन कोड- 110078 मोबाइल- +91 98681 25244

4 thoughts on “बुआजी

  • विजय कुमार सिंघल

    बहुत अच्छी कहानी, बहिन जी ! कुंडली वग़ैरह मिलवाना शुद्ध मूर्खता है

    • लीला तिवानी

      प्रिय विजय भाई जी, आपने बिलकुल दुरुस्त फरमाया है. हमारा भी यही विचार है. सार्थक प्रतिक्रिया के लिए शुक्रिया.

  • लीला बहन , कहानी बहुत अच्छी लगी और मेरी सोच के मुताबक ही इस कहानी का सारांश है . बात तो बहुत सधाह्र्ण है कि इस ज़माने में सभी लोग कुंडली मिलवाने के चक्कर में ही रहते हैं , तो फिर भी इतने तलाक क्यों हो रहे हैं ? इन दकिअनूसी विचारों से अब बाहर निकल आने का वक्त आ गिया है और आप की कहानी इस में बहुत अच्छा कदम है . इस कहानी को कुछ छोटा करके मैं रेडिओ को भेजूंगा ताकि रेडिओ के शरोताग्न इस पर अपने विचार दें .

    • लीला तिवानी

      प्रिय गुरमैल भाई जी, यह जानकर अत्यंत हर्ष हुआ, कि आपको कहानी आपकी सोच के मुताबिक लगी. आप आराम से इसे रेडियो में भेजिए, अच्छा रहेगा. जो विचार आएं हमें भी बताइएगा.

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