कविता : मजदूर
कल रात की बासी रोटी को ,
मैं आज मजे से खा रहा हूँ ,
कल एक घर बना के आया था ,
मैं आज फिर बनाने जा रहा हूँ
एक लोटा पानी पीकर फिर
मैं अपनी भूख मिटा रहा हूँ ,
गम जो भी मन में था मेरे,
मैं आज उसको भुला रहा हूँ
मजदूर कि जो जिंदगी है
उसको खूब निभा रहा हूँ
अपनी मेहनत की रोटी को ,
बहुत इज्जत से खा रहा हूँ
मंदिर-मस्जिद और गुरुद्वारे
कितने ही स्कूल बना रहा हूँ ,
मेहनत मजदूरी करके बच्चों को ,
बहुत मुश्किलों से पढ़ा रहा हूँ
मेहनत मजदूरी कर शाम को
बच्चों को कहानी सुनाता हूँ
खुद भूखे पेट रह कर भी यारो
बच्चों का रोटी खिला रहा हूँ
यूँ तो मैंने बहुत सूना है की
ये देश तरक्की कर रहा है
गर ऐसा ही है तो यारो फिर
मजदूर क्यों भूखो मर रहा है
— संजय कुमार गिरि