जनपदीय भाषाओं का हिंदी साहित्य में योगदान
साहित्य सामाजिक अनुभूतियों का प्रतिविम्ब है। विचार विनिमय का माध्यम भाषा होती है। मानवीय प्रकृति है सरलोन्मुखी होना, यही कारण है कि भाषा के दो रूप प्रचलित हुए-एक साहित्यिक भाषा एवं दूसरा लोकभाषा। लोकभाषा को जनभाषा, जनपदीय भाषा, आम भाषा, बोली भी कहते हैं। लोक भाषा में लोक साहित्य की सर्जना की जाती है। लोक साहित्य जन जीवन का दर्पण है। इसमें जनता के हृदय का उद्गार होता है।सर्व-साधारण लोग जो कुछ सोचते हैं और जिस विषय की अनुभूति करते हैं उसी का प्रकाशन उनके साहित्य में पाया जाता है। भारत की उर्वर भूमि पर जनपदीय साहित्य चतुर्दिक बिखरा है क्योंकि यह साहित्य मानवीय क्रिया-कलापों से संबद्ध है। ग्राम्य परिवेश काव्यमय है विभिन्न संस्कारों एवं ऋतुओं में गाकर मनोरंजन किया जाता है। फसल के बोने से मँडाई पर्यंत खेतों में सुर गूँजते हैं।बालक जन्म से लेकर अनेक सुअवसरों पर गीत गाए जाते हैं।
जनपदीय भाषाओं में भोजपुरी, मगही, मैथिली, अवधी, ब्रजभाषा, बैसवाडी, बुंदेला, छत्तीसगढी, बघेली, कन्नौजी आदि प्रमुख हैं जिनसे साहित्य संपदा समृद्ध हुई।लोक साहित्य अथवा जनपदीय साहित्य श्रुत साहित्य है यह पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तांरित होता रहता है। जनपदीय भाषा के साहित्य को सँजोने का कार्य बीसवीं शताब्दी में प्रारंभ हुआ। यह ऐसा साहित्य जिसमें सरसता एवं भारतीय संस्कृति कूट-कूट कर भरी है। जनपदीय भाषा के साहित्य के संकलन का श्रेय पं. रामनरेश त्रिपाठी को जाता है,जिन्होंने अपनी किसी रेल यात्रा के दौरान
किन्हीं देहाती स्त्रियों के मुख से ‘रेलिया सवतिया मोरे पिया लेके भागी’ लोकगीत की पंक्ति सुनकर लोकसाहित्य संकलन का बीडा उठा लिया। त्रिपाठी जी ने संपूर्ण भारत में घूम-घूमकर अत्यंत परिश्रम से हजारों गीत एकत्र किए जिनमें कुछ चयनित गीतों को इन्होंने कविता कौमुदी भाग-पाँच में ‘ग्रामगीत’ नाम से सन् 1929 ई. में प्रकाशित किया। इसी काल के विद्वान संकलनकर्ता श्री देवेन्द्र सत्यार्थी जी ने भारत के अतिरिक्त बर्मा तथा लंका में भ्रमण कर सन् 1945ई.तक लगभग तीन लाख लोकगीतों का संकलन किया।
जनपदीय भाषाओं से हिंदी साहित्य समृद्ध हुआ। अवधी के लोक साहित्य का सबसे प्रामाणिक संकलन प्रोफेसर इंदु प्रकाश पांडेय ने किया है, जो केवल संस्कार गीतों का संकलन है। दूसरे संकलनकर्ता डॉ.कृष्णदेव उपाध्याय हैं जिन्होंने अपने शिष्य श्री सत्यनारायण मिश्र की मदद से गीतों का संग्रह प्रतापगढ़ तथा सुल्तानपुर जिलोँ से किया है। इनमें सोहर, विवाह, नकटा, झूमर, सावन, कजरी, बारहमासा आदि हैं। इनके अतिरिक्त अन्य विद्वानों में डॉ.विद्या बिंदु सिंह, डॉ.सरोजिनी रोहतगी, डॉ.छोटे लाल द्विवेदी, डॉ.महेश प्रताप नारायण अवस्थी, डॉ. इंदुप्रकाश पांडेय, श्री जगदीश पांडेय ‘पीयूष’ आदि हैं जिन्होंने लोक साहित्य का संकलन करके हिंदी साहित्य को समृद्ध किया है।
व्रज भाषा का स्थान हिंदी के इतिहास में अत्यन्त महत्वपूर्ण है। 16वीं से होकर 19वीं शताब्दी तक यह साहित्य की एकमात्र भाषा रही है। हिंदी के महाकवि सूरदास ने इसी भाषा को अपने काव्य का माध्यम बनाया है। व्रज लोकसाहित्य के क्षेत्र में डॉ.सत्येन्द्र सबसे अग्रगण्य हैं। इनके कई ग्रंथ हैं जिनमें व्रज लोकसाहित्य को संकलित किया गया है। जो ‘व्रज लोक साहित्य का अध्ययन’,’व्रज की लोक कहानियाँ’,’जाहरपीर
गुरु गुग्गा’,’व्रज लोक संस्कृति’ आदि प्रमुख हैं जिनके माध्यम से व्रज लोक जीवन में गाए जाने वाले गीतों, कहानियों को संकलित किया गया है। इनके अतिरिक्त डॉ.गोविंद रजनीश, श्री कल्याण प्रसाद वर्मा, श्रीमती आशा शर्मा, श्री मथुरा प्रसाद दूबे जैसे विद्वानों ने व्रज लोक साहित्य को संग्रहीत कर हिंदी साहित्य को समृद्ध किया।
डॉ.गियर्सन ने बुंदेली अथवा बुंदेलखंडी को पश्चिमी हिंदी की पाँच बोलियोँ में से एक माना है। बुंदेली लोक साहित्य के क्षेत्र में श्री कृष्णानंद
गुप्त तथा पं.शिव सहाय चतुर्वेदी का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है जिन्होंने अपने अथक प्रयास तथा अनमोल कृतियों से इसके साहित्य
भंडार की श्रीवृद्धि की है। बुंदेलखंड में फाग गाने वाले में ईसुरी, गंगाधर, भुजवल और ख्याली का नाम प्रसिद्ध है। इस क्षेत्र का सर्वाधिक लोकप्रिय कवि ईसुरी है जिनके फाग आम जनता की जबान पर रचे-बसे हैं। ईसुरी के फागोँ का संकलन श्री गौरी शंकर द्विवेदी ने
‘ईसुरी प्रकाश’ नाम से किया। इसी तरह प्रोफेसर श्रीचंद्र जैन ने अपनी पुस्तक ‘विन्ध्य के लोक कवि’ में सुप्रसिद्ध फागकारोँ में ईसुरी और गंगाधर का प्रामाणिक वर्णन प्रस्तुत किया है। अन्य संकलनकर्ताओं में पं.उमाशंकर शुक्ल, श्रीमती हीरा देवी चतुर्वेदी, डॉ.शंकर लाल शुक्ल आदि ने लोक साहित्य का संकलन करके हिंदी को समृद्ध किया है।
विहारी हिंदी के अंतर्गत भोजपुरी, मैथिली, मगही बोलियां हैं।जिसमें भोजपुरी लोक गीतों का संग्रह सर्वप्रथम सन् 1943 ई. में डॉ. कृष्ण देव उपाध्याय ने ‘भोजपुरी लोक गीत’ भाग-1 में किया। श्री दुर्गाशंकर प्रसाद सिंह का ‘भोजपुरी के कवि और काव्य’, श्री संकठा प्रसाद का ‘भोजपुरी
ग्राम्य गीत’, विमल कुमार सिंह ‘विमलेश’ का ‘गाँव के गीत’ नाम से भोजपुरी लोक साहित्य के संकलन आए। इनके अलावा डॉ.अर्जुन दास सिंह केसरी, डॉ.श्याम नारायण पांडेय, डॉ.हरिशंकर उपाध्याय, डॉ.सत्यव्रत सिनहा आदि विद्वानों ने संकलन करके सभी के सामने लाए।
पं.राम नरेश त्रिपाठी ने सन् 1942ई.में मगही के कुछ गीतों का प्रकाशन किया था। तत्पश्चात कुछ ग्रामीण कवियों के द्वारा लिखित पुस्तिकाएं प्रकाश में आईं जिनमें श्रीधर प्रसाद की ‘गिरिजा-गिरीश चरित’ तथा ‘उमा शंकर विवाह कीर्तन’ आदि प्रसिद्ध हैं। इनके अतिरिक्त डॉ. विश्वनाथ प्रसाद, श्री रामचंद्र प्रसाद, डॉ.राम प्रसाद सिंह, पं. श्रीकांत शास्त्री आदि प्रमुख विद्वान हैं जिन्होंने मगही लोक साहित्य का संकलन किया।
उपर्युक्त जनपदीय भाषाओं के अलावा अन्य भाषाओं में लोक साहित्य प्राप्त होता है किंतु सभी का विवरण प्रस्तुत करना कठिन कार्य है।इस
प्रकार जनपदीय भाषाओं का साहित्य अत्यंत विपुल मात्र में उपलब्ध होता है। इसका संकलन भी बड़े ही श्रम एवं धन खर्च करके विद्वानों द्वारा किया जिससे यह स्पष्ट होता है कि इससे हिंदी साहित्य की अभिवृद्धि तो हुई ही है साथ ही साथ लोक जीवन का परिचय भी प्राप्त होता है।
— पीयूष कुमार द्विवेदी ‘पूतू’
मो. नंबर-8604112963