राजनीति

पहाड़ के लिए अभिशाप हो गया चीड़ का जंगल

भारतीय वन सर्वेक्षण के मुताबिक उत्तराखंड में 71 फीसदी जगह पर जंगल हैं, जिसमें 16 फीसदी जगह पर चीड़ के पेड़ हैं यानी चीड़ के पेड़ लाखों की संख्या में हैं। चीड़ के पेड़ टिहरी, पौड़ी, चंपावत, अल्मोड़ा, बागेश्वर और पिथौरगढ़ इन क्षेत्रों में सर्वाधिक हैं। चीड़ की पत्तियां (पिरूल) अधिक ज्वलनशील होती हंै। जंगल में अक्सर पहाड़ से पत्थर टूट कर गिरते हैं जिनसे निकलने वाली चिंगारियों से जंगल में आग लग जाती है। चीड़ की पत्तियां आग को फैलाने में तेल का काम करती हंै। ये थोड़ी ही देर में जंगल के बड़े हिस्से मंे फैल जाती हैं। कहा जाता है कि अंग्रेजों के शासनकाल में आर्थिक लाभ के लिए चीड़ के जंगलों को बढ़ावा दिया गया था।

आजादी के बाद भी देश के तंत्र ने इसके दुष्परिणामों पर ध्यान नहीं दिया। बल्कि चीड़ के जंगलों का विस्तार करते गये। ऐसे में पहाड़ के परम्परागत पेड़ बुरास, बांझ वाले जंगल खत्म होते जा रहे हैं। हालात ये है कि अब जंगली जानवरों के खाने के लिए फलदार वृक्ष न के बराबर हैं। ऐसे में जानवर अब ग्रामीण क्षेत्रों की ओर रूख कर रहे हैं। किसानों की फसलें नष्ट करते है। चीड़ की पत्तियां जंगल में आग को बढ़ाने का कार्य तो करती ही है ये अपने नीचे कोई दूसरी वनस्पति उगने भी नहीं देती हैं। चीड़ का पेड़ लगभग 40 से 100 फीट लम्बा होता है। इसकी जड़े मुशलाधार होती है जिससे भूस्खलन को भी रोकने में इनकी कोई भूमिका नहीं होती है। चीड़ उत्तराखण्ड के जलस्रोत को भी सुखा दे रहे हैं। कृषि योग्य भूमि बंजर होती जा रही है, जिसके कारण उत्तराखण्ड की वन सम्पदा को भारी नुकसान होता है। चीड़ का जंगल पूरी तरह से अब उत्तराखण्ड के लिए अभिशाप बनता जा रहा है।

जंगल में आग लगने के मामले में अप्रैल, मई और जून के महीने अधिक संवेदनशील होते हैं। इन महीनों में अगर लम्बे अंतराल तक बारिश नहीं होती है तो जंगल में आग के खतरे बढ़ जाते हैं। चीड़ की सुईयां हो या अन्य बनस्पतियों की पत्तियां, जमीन की ऊपरी सतह इनसे ढक जाती है। ऐसे में एक बार जब आग पकड़ लेती है तो फिर वह विकराल रूप धारण करती है विशेषकर चीड़ के जंगल में जहाँ लीसा पेट्रोल का काम करता है।

वैसे जंगल में आग के कई कारण है परन्तु उत्तराखंड में मुख्य रूप से वन माफिया जो जंगली जानवरों की तस्करी करते हैं इसमें कीड़ा जड़ी का अवैध दोहन करने वाले भी शामिल हैं। चरवाहे जिनको लगता है कि उनकी मवेशी चीड़ की पत्तियों/सुइयों के ऊपर से फिसलकर गिरकर मर जाती है वे जंगल में आग लगा देते है। वहीं किसानों की लापरवाही जो अपने खेत के झाड़-झंकार को जलाने के चक्कर में अनजाने में आग फ़ैल कर जंगल की ओर चली जाती है। सूखा पड़ने की स्थिति में पत्थरों के टकराने से पैदा हुयी चिंगारी से भी आग लग जाती है। अक्सर देखा गया है कि कई लोग वनों के प्रति असंवेदनशील होने के कारण देखा-देखी में भी आग लगा देते हैं।

उत्तराखण्ड में पिछले दिनों हुई वनाग्नि घटना में लगभग 50 मामले दर्ज किये गये हैं। इस वनाग्नि से अब तक लगभग इस सीजन में 3200 हेक्टेयर जंगल जल चुके है। एक दर्जन से अधिक लोग झुलस गये है। तीन की मौत भी हो गयी। न्यायालय से लेकर संसद तक इस मामले से क्षुब्ध हैं। पिछले सात वर्षों में यह वनाग्नि की सबसे बड़ी घटना है।

उत्तराखण्ड में प्रतिवर्ष आग तो लगती रहती है। पिछले दिनों लगी आग का कारण फायर लाईन का न बनाया जाना है। फायर लाईन जंगल में फैलने वाली आग को आगे बढ़ने से रोकती है। इसके लिए कैम्पा के माध्यम से प्रतिवर्ष 10 से 12 करोड़ की राशि दी जाती है पर पिछले चार वर्षों से इस राशि का उपयोग नहीं हुआ तथा उपयोगिता प्रमाण पत्र न देने के कारण आगे की राशि नहीं आयी है।

कारण हम जितने भी गिनाएं परन्तु असल वजह तो आमजन और वन विभाग के बीच में बढ़ती दूरी और जनता का वनों के ऊपर सिकुड़ते अधिकारों के कारण वनों से मोहभंग होना भी है। यह धारणा मनुष्य और पर्यावरण दोनों के लिए खतरनाक है इसलिए मनुष्य और जंगल के बीच क्या रिश्ता हो इस पर सभी लोगों को सोचने की आवश्यकता है। अंग्रेज़ों के ज़माने से चली आ रही वन नीति की चीर-फाड़ करने की आवश्यकता है और यदि जंगल व पर्यावरण को बचाना है तो जनोन्मुखी वन नीति बनानी ही पड़ेगी।

अमर बहादुर मौर्य
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