भोजन के लिए दुर्योधन का श्रीकृष्ण को आमंत्रण
महाभारत का युद्ध टालने और दुर्योधन को समझाने के लिए अन्तिम प्रयास के रूप में श्रीकॄष्ण को हस्तिनापुर की राजसभा में युधिष्ठिर के दूत के रूप में भेजने का निर्णय लिया गया। श्रीकृष्ण ने भी इसे सहर्ष स्वीकार किया। हस्तिनापुर के मुख्य द्वार पर श्रीकृष्ण का भव्य स्वागत किया गया। सबसे औपचारिक मुलाकात के बाद श्रीकृष्ण ने दुर्योधन का मन टटोलने के लिए राजकीय अतिथि गृह के बदले दुर्योधन के महल में ही जाने का निर्णय लिया।
दुर्योधन के आश्चर्य की सीमा नहीं थी। उसने कल्पना भी नहीं की थी कि श्रीकृष्ण सीधे उसके महल में आयेंगे। वह तो उनके राजसभा में पहुँचने की सूचना की प्रतीक्षा कर रहा था। पूर्व व्यवस्था भी यही थी। लेकिन श्रीकृष्ण औरों की दी हुई व्यवस्था में कब बंधने वाले थे। उनका प्रत्येक कार्य सदैव एक नई व्यवस्था की रचना करता था।
श्रीकृष्ण को अपने महल में देख दुर्योधन थोड़ा हड़बड़ाया अवश्य, परन्तु शीघ्र ही स्वयं को संयत करते हुए श्रीकृष्ण का उचित स्वागत-सत्कार किया। कुशल-क्षेम का आदान-प्रदान किया, फिर भोजन के लिए प्रार्थना की। केशव द्र्योधन के घर भोजन कैसे करते? उसका आग्रह स्वीकार नहीं किया। कारण पूछने पर गंभीर वाणी में साफ-साफ उत्तर दिया –
“राजन! अपना उद्देश्य पूर्ण होने के बाद ही दूत द्वारा भोजनादि ग्रहण करने का विधान है। जब मेरा कार्य पूर्ण हो जाय, तब मेरा और मेरे सहयोगियों का उचित सत्कार करना। मैं शल्य नहीं हूँ, अतः काम, क्रोध, द्वेष, स्वार्थ, कपट अथवा लोभ में पड़कर धर्म को नहीं छोड़ सकता। भोजन या तो प्रेमवश किया जाता है या आपत्ति में पड़ने पर। मेरे प्रति तुम्हारे मन में कोई प्रेम-भाव नहीं है और मैं किसी आपत्ति में भी नहीं हूँ। यह अन्न भी तुम्हारा नहीं है। इसपर पाण्डवों का स्वाभाविक अधिकार है। इसे तुमने अधर्म और अन्याय से दस्यु की भांति प्राप्त किया है। अतः धर्म-पथ पर चलने वाले पुरुष के लिए अखाद्य है। पूरे हस्तिनापुर में सिर्फ विदुरजी का ही अन्न खाने योग्य है। मैं उन्हीं के घर भोजन करूंगा।”
दुर्योधन निरुत्तर था। श्रीकृष्ण ने विदुरजी का आतिथ्य स्वीकार किया। भोजनोपरान्त रात्रि विश्राम भी वहीं किया।