सामाजिक

निरर्थक शब्द

कुछ दिन हुए लगातार कई दिन तक हमारे घर में महमान आते रहे और हमारे समाज की एक उत्तम रीती है, महमान नवाजी की। महमानों को पर्सन करने के लिए तरह तरह के खाने बनते। महमान भी खुश और हम भी खुश। खाने के प्रती मैं बहुत सावधान हूँ और मेरी खुराक में ज़िआदा सब्ज़ी फ्रूट नट सीड और दूध दही ही होता है लेकिन जब महमान आ जाएँ तो बात कुछ और हो जाती है। जब हम बहुत दिनों तक लगातार ज़्यादा खाते रहते हैं तो फिर हमारा मन कुछ हल्का भोजन करने के लिए करता है। मैंने अर्धांगिनी साहिबा को कहा, “बहुत दिन तक ज़्यादा खाया है, अब कोई हलकी दाल बना लो, आज बस मड़े मसूर ही बना लो”. कुछ घंटे बाद मैंने फिर अर्धांगिनी से पुछा कि इस से हलकी दाल या सब्ज़ी और क्या हो सकती है। उसने फट से जवाब दिया कि “इस से हलकी या तो मढ़ी मूंगी ही हो सकती है या फिर यह गढ़ी गोभी हो सकती है, अब जो आप चाहो मैं बना दूंगी “। मैंने कहा कि तो आज मूंगी ही बनाई जाए। बात गई आई हो गई और इस के बाद मैं नहाने के लिए शावर रूम में चले गया। मैं ने नहाना शुरू कर दिया और एक बात को ले कर जोर जोर से हंसने लगा। क्या बात है इतना हंस रहे हो, पत्नी की आवाज़ आई। मैंने कोई जवाब नहीं दिया और पत्नी ने भी दुबारा पुछा नहीं क्योंकि उस को पता है कि जिस रोग से मैं पीड़त हूँ उस में इंसान इमोशनल बहुत होता है, हंसने लगे तो हंसी रूकती नहीं और रोना शुरू हो जाए तो आँखों से आंसूं बहते ही रहते हैं, इंसान को पता तो होता है लेकिन इस पे कंट्रोल नहीं कर पाता।

स्कूल के ज़माने में मैंने एक लेख पड़ा था जिस का नाम था “गुसलखाना” काफी लम्बा लेख था यह और इस लेख के अर्थ यह ही थे कि जब हम गुसलखाने में इश्नान कर रहे होते हैं तो हमारे मन में पता नहीं कितने कितने खियाल आते हैं, हमारा धियान कितनी दूर दूर तक चले जाता है। आज गुसलखाने में मेरा धियान इस बात पर टिक गया कि यह जो मसूर शब्द से पहले मैंने मड़े कहा और पत्नी साहिबा ने मढ़ी मूंगी और गढ़ी गोभी कहा, इन मढ़े, मढ़ी और गढ़ी के क्या अर्थ हुए तो मेरा धियान मिडल स्कूल के उन दिनों में चला गया जब हमारे पंजाबी के मास्टर भगत सिंह ने पंजाबी की व्यकरण पढ़ाते समय बताया था की हम रोज़ाना ज़िंदगी में अनजाने में ही पता नहीं कितने शब्द बोल देते हैं जिन के कोई अर्थ नहीं होते और इन को व्यकरण में निरर्थक शब्द बोलते हैं। भगत सिंह जी ग्रंथि भी थे और धर्म के बारे में वह बहुत कुछ बताया करते थे कि इंसान का दिमाग एक बांदर की तरह होता है, यह कभी खाली नहीं होता और बंदर की तरह टिक कर बैठता नहीं। हम कहीं भी हों, चाहे गुसलखाने में, चाहे टॉयलेट में या कपड़े ही क्यों ना बदल रहे हों, यह दौड़ता ही रहता है और यही मैडीटेशन या योग का असली मनत्व है ताकि मन को बंदर बृति से निकाल कर प्रभु चरणों में लाया जा सके। जिस ने यह बंदर मन को काबू में कर लिया वह भवसागर से पार हो गया।

मन तो मन ही ही है ना, अब नहाते नहाते मैं निरर्थक शब्द ढूंढने लगा। भारत के अन्य प्रांतों के बारे में तो मुझे पता नहीं कि यह निरर्थक शब्द बोलते हैं या नहीं लेकिन पंजाब में तो यह निरर्थक शब्द जैसे पंजाबी भाषा का एक हिस्सा ही हों और मज़े की बात यह है कि हम कोई भी बात कर लें, यह निरर्थक शब्द अपने आप ही साथ जुड़ जाते हैं और इन शब्दों की तर्ज़ भी खुदबखुद बन जाती है। मैंने लिखा था मढ़ी मूंगी और इस को मूंगी षूँगी भी बोल सकते हैं। गढ़ी गोभी और मढ़े मसूर जैसे करोड़ों अरबों शब्द हो सकते हैं और अब मैं कुछ शब्द लिख कर ही यह छोटा सा लेख सम्पूर्ण करूँगा जो निमन लिखित हैं, नमक शमक, गुड़ गड़, खंड खुंड, सब्ज़ी सुब्ज़ी, मकान मकून, दरवाज़ा दरबूजा, कुर्सी करसी, मेज मूज, कपड़ा कुप्ड़ा, कमीज़ कमूज़, पगड़ी पुगड़ी, कंघी कुंघी, टैली टूली, सोफा सूफा, फिल्म फुलम, फोटो शोटो, मिर्च मुरच, गाजर गूजर, मूली माली, बैंगन बूँगन, भिंडी भुँडी, शलगम शुलगम, अरबी उरबी, धनिआं धुनीआं, मीट शीट, शराब शरूब, दाल दूल, साग सूग, रोटी राटी, पराठा परूठा, जलेबी जलूबी, पकौड़े पकूड़े, समोसे समासे, सीरनी सूरनी, पेठा पूठा, पूरी पारी, भटूरे भटारे, छोले छाले, डाक्टर डूकटर, वकील वकूल, चपड़ासी चपडूसी, मास्टर मूस्टर, टीचर टूचर…

अब आप भी कोशिश कीजिये और देखिये कि कितने निरर्थक शब्द ढून्ढ सकते हैं। मेरा दावा है कि आप को कोई मुशकत नहीं करनी पड़ेगी।

6 thoughts on “निरर्थक शब्द

  • लीला तिवानी

    प्रिय गुरमैल भाई जी, बहुत बढ़िया. हमारे यहां भी ऐसे बहुत-से शब्द प्रचलित हैं. हम आपको ऐसा ही एक चुटकुला सुना देते हैं.

    ”एक पति-पत्नि ट्रिप पर जा रहे थे.

    पत्नि ने कहा- ए जी, सुनते हो! चलो हम मिल-जुलकर सामान उठा लेते हैं.

    पति बोला- ठीक है, बताओ मैं क्या उठाऊं और तुम क्या उठाओगी?

    पत्नि ने कहा- बक्सा तुम उठा लो, वक्सा मैं उठा लूंगी, थैला तुम उठा लो, वैला मैं उठा लूंगी, छतरी तुम उठा लो, वतरी मैं उठा लूंगी, ऐसे ही मिल-जुलकर काम हो जाएगा.”

    • हा हा ,लीला बहन इन निरार्थिक शब्दों का अपना ही ही एक मज़ा है .इन से शब्दों पे और निखार आ जाता है .

    • हा हा ,लीला बहन इन निरार्थिक शब्दों का अपना ही ही एक मज़ा है .इन से शब्दों पे और निखार आ जाता है .

  • लीला तिवानी

    प्रिय गुरमैल भाई जी, बहुत बढ़िया. हम आपको चैलेंज तो नहीं कर सकते, बस एक चुटकुला सुना देते हैं.

    एक पति-पत्नि ट्रिप पर जा रहे थे.

    पत्नि ने कहा- ए जी, सुनते हो! चलो हम मिल-जुलकर सामान उठा लेते हैं.

    पति बोला- ठीक है, बताओ मैं क्या उठाऊं और तुम क्या उठाओगी?

    पत्नि ने कहा- बक्सा तुम उठा लो, वक्सा मैं उठा लूंगी, थैला तुम उठा लो, वैला मैं उठा लूंगी, छतरी तुम उठा लो, वतरी मैं उठा लूंगी, ऐसे ही मिल-जुलकर काम हो जएगा.

  • Man Mohan Kumar Arya

    लेख बहुत अच्छा लगा। हम भी अपने घर में विशेष रूप से अपनी पत्नी के मुंह से निरर्थक शब सुनते रहते हैं। हाल चाल, प्यार मुहब्बत, बच्चे कच्चे, पहल वहल, सब्जी वबजी] प्रेम व्रेम आदि में एक एक निरर्थक शब्द दिखाई दे रहा है। इस नवीन रचना के लिए हार्दिक धन्यवाद एवं नमस्ते आदरणीय श्री गुरमैल सिंह जी।

    • मनमोहन भाई , है तो यह निरार्थिक शब्द एक सधाह्र्ण बात ही लेकिन मेरा विचार है कि इन शब्दों से सादगी की महक आती है और इन से कोई नुक्सान नहीं होता . किसी ना किसी फोरम में यह दुसरी भाषाओं में भी होंगे लेकिन हमें इस का पता नहीं . बहुत देर हुई एक इंग्लिश कॉमेडी सीरीअल में एक लड़का बार बार crocodail शब्द बोल रहा था .उस का पिता गुस्से में बोला , stop this nonsence of croco bloody dial , और लोग हंस पड़े थे .

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