मैं
मन बड़ा अस्थिर
शायद तभी चंचल भी
ठहराव पाने की जुगत में
भौतिक शक्तियाँ
कर देती भ्रमित
फिर से भटकने लगता मन
यही क्रम में उम्र को
पीछे मुड़कर नहीं देख पाता इंसान
अहंकार का दिखावा
उसमे नई -नई सोच
विकसित करता
किंतु मृत्यु का भय कचोटने पर
मन स्मरण करता आराध्य का
तब अहंकार से “मै “का बल
अपने आप घटने लगता
और तब इंसान कह उठता
वो है ऊपर वाला
“मै “कुछ भी नहीं
— संजय वर्मा “दृष्टि “
सुंदर
सुंदर