यु ही सोच रही
बैठे बैठे यु ही सोच रही
अपलक तुझे ही निहार रही
मुझमे तु तुझमे मै
अब समाहित होने को सोच रही
जैसे भँवरे फूलो के
पंखूडीयो के बंधन मे बंधकर
मकरन्द की रसपान करने मे
मदमस्त हो जाता है
ठिक वैसे ही
मैं भी तुम्हारे बंधन में
बधकर खुशियो का रंग
बिखेरना चाहती हूँ
कही रहूँ ,कैसे भी रहूँ
बस तुम्हारे साथ जीना
चाहती हूँ.
जब हमदोनो साथ हो
तब दूनियॉ के हर खुशी
हमारे हाथ हो
बस यही बैठे सोच रही…
निवेदिता चतुर्वेदी
सुंदर कविता!!