गीतिका/ग़ज़ल

ग़ज़ल

सफर में चल दिए हैं लौट आना भी मुश्किल है
इधर आना मुश्किल है उधर जाना मुश्किल है।

दरिया समझ कर रेत में यूँ फंस गई कस्ती मेंरी
मुझे लगता है अब किनारे आना भी मुश्किल है

बैठ कर चल दिए हम मन्जिल पाने की चाहत थी
भवर से लड़ रही कश्ती उतर जाना भी मुश्किल है।

अगर तुम साथ चलते तो ये धारा पार हो जाती
अकेले मंजिलो तक अब मेरा जाना भी मुश्किल है।

मौत या जिन्दगी अब तो खुदा के हाथ लगती है
बिना रब की दुआ खुदको बचा पाना भी मुश्किल है ।

मेंरी पतवार तुम जानिब थाम कर इस कदर रखना
बिना पतवार के माझी पार जाना भी मुश्किल है।

— जानिब

*पावनी दीक्षित 'जानिब'

नाम = पिंकी दीक्षित (पावनी जानिब ) कार्य = लेखन जिला =सीतापुर

2 thoughts on “ग़ज़ल

  • विजय कुमार सिंघल

    उत्तम ग़ज़ल !

  • मौत या जिन्दगी अब तो खुदा के हाथ लगती है
    वाह लाजवाब पंक्तियां!!
    वाह लाजवाब पंक्तियां!!

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