गीत : रूप तेरा मन बसा
रूप तेरा मन बसा यूँ, फूल ज्यों मकरंद है।
वो हमेशा झिलमिलाए,ज्यों गगन में चंद है॥
बात महकी रातरानी,प्राण में बिखरी हुई।
याद अनुपम चाँदनी बन,और भी निखरी हुई।
पढ़ लिया जिसको नज़र ने,गीत ग़ज़लेँ छंद है।
रूप तेरा मन बसा यूँ,फूल ज्यों मकरंद है॥1॥
बीन में हो रागिनी सी,तार में झंकार हो।
काव्य की हो कल्पना तुम,जिंदगी आधार हो॥
दुग्ध सी मुस्कान उज्ज्वल,डालती नव फंद है।
रूप तेरा मन बसा यूँ,फूल ज्यों मकरंद है॥2॥
रूठना मुझसे तुम्हारा,बैठना जा दूर फिर।
मैं मनाऊँ किस तरह से,सोचकर मजबूर फिर॥
मान खुद से खिलखिलाना,ये हृदय में बंद है।
रूप तेरा मन बसा यूँ,फूल ज्यों मकरंद है॥3॥
— पीयूष कुमार द्विवेदी ‘पूतू’
रूठना मुझसे तुम्हारा,बैठना जा दूर फिर।
मैं मनाऊँ किस तरह से,सोचकर मजबूर फिर॥
मान खुद से खिलखिलाना,ये हृदय में बंद है।
रूप तेरा मन बसा यूँ,फूल ज्यों मकरंद है॥3॥ बहुत खूब .