मैंने उसे भी स्वीकार किया…
तुमने जब चाहा
जैसे चाहा
मैं वैसे हीं जीती रही
तुमने सूरज को चाँद कहा
मैंने मान लिए
तुमने दिशाओं की
रूप रेखा बदल दी
मैंने उसे भी स्वीकार कर लिया
हर बार मैंने तुम्हारी हर बात मानी
जब चाहा तुम्हारी बाँहों में
खुद को सौंप दिया,
तुमको पाकर जी उठी मैं
तुम्ही को पाकर मर-मर गयी
पर कुछ नही बदला…
तुम आज भी वहीँ हो
जो सदियों से थे
जिसकी नज़र में औरत,
कल भी एक भोग्या थी
आज भी एक भोग्या है
किसको दोष दूँ…
तुम्हारी सोंच को
या इस समाज को
जिसके निर्माता भी तुम्हीं हो
ना ये कल बदली थी
ना ये आज बदली है
चाहे जिस तरह से
भ्रमित कर लो तुम
पर तुम नही बदलोगे
तुम्हारे अंदर का ये पुरुष
तुम्हें कभी बदलने नही देगा
क्यूंकि तुम दिखावा करते हो
अपने फौलाद होने का
मगर मैं जानती हूँ
कि भीतर से तुम
कितने खोखले हो
क्यूंकि मैं एक औरत हूँ
जिसने तुम्हें कल भी चाहा
जो तुम्हें आज भी चाहती है
जिसने हर घड़ी
तुम्हारी लंबी उम्र की
दुआएं मांगी है…
ना जाने कितने व्रत किए
तुम्हारे नाम के…
सर से लेकर पाओं तक
सजती रही तुम्हारे नाम की
निशानियों से…
मगर तुमने क्या किया ??
कभी भरे समाज में नंगा किया
तो कभी दहेज की बलिवेदी पर
चढ़ा दिया….
तुम कल भी वही थे…
तुम आज भी वही हो
तुमने मुझे बाज़ार में देखा
तुमने मुझे घर में भी देखा
मगर तुम्हारी निगाहों में
कोई फर्क नही आया
वही अनोखा अंदाज़
हर बार अपनी बात मना लेना
सुनो ना…आखिर तुम कब बदलोगे??
©® रश्मि अभय
कविता अच्छी लगी . औरत बदल रही है ,पती के साथ सती हो जाने का ज़माना भी चले गिया ,बाल विधवा का ज़माना भी गिया . औरत पड़ और आगे बड रही है ,यह भी कहना सही ही होगा कि औरत को पढाने में भी मरद का ही हाथ है . औरत को बस यह समझ लेना चाहिए कि मर्द माँ नहीं बन सकता .माँ सिर्फ औरत ही बन सकती है, इस लिए अपना सब कुछ मर्द को सौंपने से पहले औरत को ही सावधान रहना होगा .