दायरे
“सिंदूर क्यों लगाते हैं?” रतना ने पूछा।
मैंने रटी-रटाई बात सुना दी “सुहाग की निशानी होती है।“ ”मगर माँ, हमारे गणेश सर को रिटायर होने पर हम सब बच्चों ने मिलकर एक निशानी दी क्योंकि हम उनके पास नहीं होंगे तो वो हमें याद करेंगे। निशानी तो उसकी रखी जाती है न जो आप मौजूद नहीं होता है।“
इन क्रांतिकारी औलादों को मैं क्या समझाऊँ और कैसे समझाऊँ “फालतू की बकवास बंद कर और चल जाकर अपने बाबू जी को चाय दे आ।“
रतना मुंह बनाती हुई चाय लेकर रसोई से चली गई। मगर मुझे जीवन के उस पड़ाव पर छोड़ गई जहाँ मैं स्वयं रतना की उम्र की थी। नई दुल्हन कहलाती थी। मुझे याद है सिंदूर का वो सबक भला कैसे भूल सकती हूँ मैं। औरों की तरह मेरी मेंहदी उतरने का इंतज़ार नहीं किया गया था। आज से ही मुझे नहाने के बाद चौका संभालना था। अभी नहाकर थोड़ी देर ही हुई थी। मेरे बाल अभी गीले और उलझे हुए थे।
सोचा पहले सबके लिए चाय बना दूँ फिर सज लूँगी। मगर मेरी दादी सास ने वो कोसना शुरू किया कि मेरे पैरों तले ज़मीन खिसक गई। ऐसी-ऐसी गालियां जो मैंने मर्दों को भी देते नहीं सुना था। उस पर उनकी ज़बान भी इतनी साफ नहीं थी कि कुछ समझ पाती।
ऐसे में मेरी सास ने प्रवेश किया।
“सिंदूर कहाँ है?” “अभी तैयार नहीं हुई हूँ। चाय बनाकर जा रही थी।“ सास थोड़ा पिघली। पहली गलती जानकर समझाने लगी। “सुहाग की निशानी होता है….नहाते ही सबसे पहले लगा लेना…इसके बिना किसी के सामने मत आना…आज घर में तो चल गया…गांव की औरतों के सामने इज्ज़त उतर जाएगी…हमारी मर्यादा का ख्याल रखो।“
मगर रसोई से बाहर जाते-जाते सासों वाला तीर वह छोड़ ही गईं –“तुम्हारी माँ ने कुछ नहीं सिखाया।“
रतना की तरह क्रांतिकारी थे ही नहीं जो कभी माँ से ऐसा सवाल पूछा होता और न ही कभी शादी से पहले माँ के आगे सिंदूर लगाने का मौका ही पड़ा। फिर सिंदूर का महत्व कौन बताता?
मुझ पर जो गुज़री सो गुज़री, पर इस घटना से एक और विचार कौंध रहा है कि हमने तो चुपचाप घुड़की सुन ली और इस लाल रंग को सदा के लिए माथे पर धारण कर लिया। कहीं इस नालायक लड़की की शादी हुई और इसकी सास ने इसे ऐसा कुछ कहा तो यह तो उसके साथ वकीलों की तरह जिरह करने लगेगी। और सब सासें और सासें ही नहीं सब लोग यही कहेंगे कि माँ ने कुछ सिखाया नहीं। मुझे इसे सिखाना चाहिए।
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सारी शाम तरह-तरह की बातें मन में इकठ्ठी कर लीं। जब रात हुई और रतना अपना बिस्तर लगाने लगी तो मैं उसकी चारपाई पर जा बैठी। ”तुझे सच में सिंदूर का महत्व नहीं पता?”
“नहीं माँ। बताओ ज़रा, मैं भी सुनूँ।“ मैंने बेटी की बात में छिपी उलाहना को दरकिनार करते हुए उसे सिंदूर का महत्व घोंटवाना चाहा। ”मैं अगर कहूँगी कि हिन्दू स्त्रियां इसे मांग में लगाकर अपने पति की लंबी आयु की कामना करती हैं, तो तू मानेगी नहीं।“
“ना! बिल्कुल नहीं मानूँगी। भला सिंदूर का किसी की आयु से क्या लेना-देना। वो भी किसी और के माथे पर लगा सिंदूर, किसी और की आयु कैसे बढ़ा सकता है। अगर मैं खाना खाती हूँ तो मेरा पेट भरता है। मेरे खाना खाने या न खाने से किसी और का पेट कैसे भर सकता है। जो मैं अपने शरीर के साथ करूँगी वो किसी और के लिए कैसे असरदार हो सकता है।“ ”मुझे मालूम था तू बिल्कुल नहीं मानेगी। पढ़ने-लिखने जो लग गई है। तो एक बात सुन। मांग पर जिस जगह सिंदूर लगाया जाता है उस स्थान को शून्य चक्र कहा जाता है। शरीर में स्थित षट्चक्रों के ऊपर शून्य चक्र होता है। इस शून्य चक्र पर सिंदूर लगाने से कुण्डलिनी की शक्तियां जागृत रहती हैं और रक्तचाप नियंत्रित रहता है और तनाव भी।“
यह सुनकर रतना सोच में पड़ गई। मुझे लगा कि मैं अपने कार्य में सफल हुई। मगर नहीं। ”मां…औरतों का ही शून्य चक्र होता है क्या? आदमियों का नहीं होता है क्या? और सबसे ज़्यादा रक्तचाप तथा हृदय संबंधी रोग तो पुरुषों को होते हैं। तो सिंदूर लगाना तो सबसे ज़्यादा पुरूषों का बनता है।“ अगर इसकी यह बात किसी और ने सुनी होती तो मर्दों को सिंदूर लगाने की सलाह पर दो-चार तमाचे दिए होते। मगर रतना अभी चुप नहीं हुई। ”और शादी के बाद ही रक्ताचाप और तनाव पर नियंत्रण क्यूँ? उसके पहले क्यूँ नहीं या विधवा होने पर क्यों नहीं?” मैंने अपना माथा पीट लिया। इन नए बच्चों को कोई सिखाए तो क्या सिखाए और कैसे सिखाए।
”और माँ आप तनाव नियंत्रण की बात करती हो। तो हम औरतों को तनाव दिया ही क्यूँ जाता है। उसका तनाव कम करने की बजाय; उसके सुख-दुख बांटने की बजाय, उसके परेशानी बांटने की बजाए, उसे तनाव से लड़ने के उपाय क्यूँ बताते हैं ताकि उसे और तनाव दे सकें। मां, मैं देखती हूँ आपको। हममें से हर कोई आपको तनाव ही देता है, बांटता कोई नहीं।“ मैंने भावुक होकर रताना को देखा। उसकी आंखों में पानी की हल्की सी परत थी। बच्चे कितनी जल्दी बड़े हो जाते हैं।
मैं अपने आप को रोक न सकी और अपनी बच्ची को बांहों में भर लिया। मेरे सीने पर सिर टिकाए हुए मेरी बाई बाँह को अपलक देखते हुए वह बोल रही थी।
“माँ पता है हमारे जैसे अरबों-खरबों मनुष्य इस पृथ्वी पर घूम रहे हैं। हमारे देश जैसे सैकड़ों देश इस पृथ्वी पर हैं। हम लोग एक छोटे से बिन्दु से भी छोटे हैं। और पता है माँ हमारी पृथ्वी जैसे करोड़ों खगोलीय पिण्ड इस ब्रम्हाण्ड में सूर्य जैसे लाखों उर्जा के पिण्डों के आगे-पीछे घूम रहे हैं…” ये अचानक क्या बड़बड़ा रही है रतना। थोड़ी देर के लिए मैं सकपका गई कि लड़की का दिमाग़ तो ठीक है। ”…पृथ्वी जैसी बहुत सी पृथ्वियां हैं मां। मगर हम उन तक कभी नहीं पहुंच सकते मां। पता है क्यूँ?” ”क्यों?” ”क्योंकि माँ मेरी और तुम्हारी तरह इस पृथ्वी के अरबों-खरबों लोग सिंदूर, बिछिया, पायल, नथिया नहीं दूसरी रीतियां, अन्य रिवाज़ों, धर्मों, कर्म-कांडों, फिर उन्हें दूसरों से सहेज कर रखने, उसकी श्रेष्ठता सिद्ध करने और खुद से अलग वालों को मिटाने में ही उलझ कर रह गए हैं। इस परीधि के बाहर सोच ही नहीं पाते। इसी दायरे में बंध कर रह जाते हैं। जीवन भर।“ क्या कहूँ मैं इस पागल को या इस सयानी को? माँ ने कुछ नहीं सिखाया, पर बेटी सिखाने में सफल हो गई।
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बेजोड़ लेखन
शुक्रिया