हर युग में महाभारत
महाभारत के समय भी दो वर्ग थे — एक निपट भौतिकवादी, जो शरीर के अतिरिक्त कुछ भी स्वीकार नहीं करता था और जिसकी दृष्टि मात्र भोग पर थी। आत्मा के होने, न होने से कोई मतलब न था। जिन्दगी का अर्थ था भोग और लूट, खसोट। उसी वर्ग के खिलाफ कृष्ण को युद्ध करवाना पड़ा। जरुरी हो गया था कि शुभ की शक्तियां कमजोर और नपुंसक सिद्ध न हों। आज फिर करीब-करीब हालत वैसी ही हो गई है।
शुभ में एक बुनियादी कमजोरी होती है। वह लड़ने (संघर्ष) से हटना चाहता है – पलायनवादी होता है। अर्जुन भला आदमी है। अर्जुन शब्द का अर्थ ही होता है — अ+रिजु, मतलब सीदा-सादा, तनिक भी आड़ा-तिरछा नही। सीदा-सादा आदमी कहता है कि झगड़ा मत करो, जगह छोड़ दो। कृष्ण अर्जुन से कही ज्यादा सरल हैं, लेकिन सीधे-सादे नहीं। कृष्ण की सरलता की कोई माप नहीं, लेकिन सरलता कमजोरी नहीं है। और पलायन भी नहीं है। न दैन्यं न पलायनं। वे जमकर खड़े हो जाते हैं। न भागते हैं और न भागने देते हैं। वह निर्णयात्मक क्षण फिर आ गया है। लड़ना तो पड़ेगा ही। गांधी, बिनोवा, बुद्ध, महावीर काम नहीं आयेंगे। एक अर्थ में ये सभी अर्जुन हैं। वे कहेंगे — हट जाओ, मर जाओ, भीक्षाटन कर लो, पर लड़ो नहीं।
कृष्ण जैसे व्यक्तित्व की फिर आवश्यकता है जो कहे कि शुभ को भी लड़ना चाहिए। शुभ को भी तलवार हाथ में रखने की हिम्मत रखनी चाहिए। निश्चित ही शुभ जब हाथ में तलवार लेता है, तो किसी का अशुभ नहीं होता। अशुभ हो ही नहीं सकता। क्योंकि लड़ने के लिए कोई लड़ाई नहीं है। अशुभ जीत न पाए, लड़ाई इसलिए है।