ग़ज़ल
चढ़ रहा क्यूँ आदमी फिर मजहवी दीवार पर
रख दिए हैं हाथ उसने आज फिर तलवार पर
जी रहे थे हम यहाँ तो प्रेम और सद्भाव से
फिर न जाने आज क्यों हम चल पड़े अंगार पर
नफरतों का बीज बोते फिर रहे कुछ लोग अब
रख दिया चाक़ू नुकीला देश के आधार पर
एकता का पाठ पढ़ते थे कभी इतिहास में
अब पढ़ाया जा रहा है दुश्मनी व्यवहार पर
दाल रोटी चल रही थी, आज तक जिनसे कभी
जिन्दगी बदहाल उनकी जी रहे बीमार पर
अब तुम्हारी खैर “संजय” कौन पूछेगा यहाँ?
मर रहें हैं लोग लड़कर, दोष दें सरकार पर
— संजय कुमार गिरि