कविता : दिल्ली चीख रही है
जख्म जो कुरेदा उसे भर रही है
पर राक्षसों की इस बस्ती में
ज़बरन क्रोध को पी रही है ,
बेबस निगाहों से बस तक रही है,
कभी तो कोई आएगा
हमारी हिम्मत बंधायेगा
हमारे हकों को हम तक
किसी भी हाल में पहुंचाएगा
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क्या होगा?
कुछ नहीं
कुछ दिन शोर मचेगा
फिर सब ठन्डे पड़ जायेंगे
अपने उसूलों की दुहाई
अच्छी कविता ! दिल्ली वालों ने जो मूर्खता की है उसी का फल भोग रहे हैं। पर इसका अंत अवश्य होगा।
अच्छी कविता ! दिल्ली वालों ने जो मूर्खता की है उसी का फल भोग रहे हैं। पर इसका अंत अवश्य होगा।