दूर और पास
जितना करीब आए
चेहरे के दाग़ गहराते गए
किताबों में छपे शब्द
और धुँधलाते गए
क्यूँ हर चीज़ अच्छी
दूर से ही लगा करती है
पास आकर सब बेकार
बुरी, बेहिसाब लगती है
क्यों चाँद दूर से
इतना खूबसूरत लगता है
और पास जाकर देखो
तो अपनी ही ज़मीन सा लगता है
दूर हंसता हुआ इंसान
क्यों ख़ुश नज़र आता है
पास आकर क्यों
उसके घावों का
पिटारा खुल जाता है
लहराती डालियों पर
क्यों काँटे नज़र नहीं आते
क्यूँ ख़ूबसूरत पत्थर की मूर्तियों पर लगे
चोट के निशान हम देख नहीं पाते
ऐसा होता है हर बार
हमारे साथ क्यूँ
अपना तो दर्द दिखता है
औरों के दर्द हमें नज़र नहीं आते।
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