अनंत प्रेम दो
मैं अधीर हूँ
शाँत करो
अनंत प्रेम दो
हृदय मे धरो
स्वप्न मे तुम रहो
जीवन मे तुम रहो
मेरी जिव्हा
मेरे नेत्र
मेरे हाथ
और कलम बनो
मेरी कविताओं मे
गीतों मे
तुम ही रहो
छंद बनो, बंध बनो
अलंकार और श्रृंगार बनो
सजाओ मेरी रचनाएँ
मेरे गीत, गज़लें
और मेरा प्रेम
चमको सितारों की तरह
छाओ घटाओं की तरह
बसा लो
नयनों के काजल मे
छुपा लो
अपने आँचल मे
बिंदिया, झुमके, कंगन
मुझसे अपना श्रृंगार करो
अधरों की लाली बनाकर
समीप ला दो
अपने मन मंदिर मे
मेरी मूरत सजा दो
मैं तरसता हूँ
पागल बरसता हूँ
मेरी बूंदों से स्नान करो
मेरी भावनाओं का
सम्मान करो
तुम देवी हो
कल्याण करो
दूसरी किसी युक्ति से
नहीं युक्त हो सकता हूँ
बस तुम्हारे सान्निद्य से
मैं मुक्त हो सकता हूँ
तुम्हारे हाथों का स्पर्श पाकर
मेरे सब पाप धुल जाएँगे
तुम्हारे हृदय मे समाकर
मुझे दोनों लोक मिल जाएंगे
मेरे प्रति उदारता दिखाओ
हृदय मे बसाकर
विशालता दिखाओ
छुपालो दुनिया से
कोई पहचान ना सके
हम एक हो जाएँ
प्रेम मे खो जाएँ
बहुत संदर कविता.
धन्यवाद सिंघल साहब जी
प्रिय अर्जुन भाई जी, हृदय की विशालता में ही अनन्य प्रेम का निवास हो सकता है. अति सुंदर कविता के लिए आभार.
उत्साह वर्धन के लिए धन्यवाद बहन