कविता : बड़े दांतों वाली मशीन
खड़ी है
उपेक्षित अवस्था में
वह बड़े दांतों वाली मशीन
कुछ ही दूरी पर
परियोजना स्थल से l
न जाने कब पड़ जाए
नजर उसपर
किसी कबाड़ी की
क्योंकि अब
समाप्त हो चुका है
निर्माण कार्य l
उसकी अपार क्षमताओं का
उपयोग कर
उसे भूल चुका है चालक
और शायद मालिक भी
वह दे चुकी है
अपना सौ प्रतिशत
या उससे भी
कई गुणा l
मगर अडिग है दृढ़ता से
आज भी
जंग लगे कल – पुर्जों ने
भले ही उसे
कर दिया हो निष्प्राण l
उसके घुमावदार हिस्से के नीचे
आश्रय पाते हैं आवारा जंतु
बारिश और भीषण गर्मी से
बचाव के लिए
कर रही है सार्थक
आज भी
अपने होने के अर्थ को l
समयचक्र ने कर दिया है
उसे गतिहीन
मगर प्रेरणापुंज है वह
हर उस व्यक्ति के लिए
जो कर चुका है
आत्मसमर्पण
परिस्थितियों से हारकर l
जननी है वह
नई अवधारणाओं की
झिंझोड जाती है
मस्तिष्क के तंतुओं को
अनायास ही
त्वरित वेग से
ताकि मंथन सदैव
जारी रहे l
— मनोज चौहान
बहुत अच्छी कविता, मनोज जी !
हौसला अफजाई के लिए हार्दिक आभार सर …..!
बहुत अच्छी कविता, मनोज जी !
मनोज भाई, अत्यंत मार्मिक एवं प्रेरणादायक कविता हेउ बधाई
आभार अर्जुन नेगी जी …!
बढ़ियां कविता
आभार जी …!