शहर
दौड़ता-भागता शहर
मैं कहती, ज़रा ठहर
मगर सुनता ही नहीं
यह दौड़ता-भागता शहर
पैरों में जैसे, इसके पहिए जड़े हों
जो चलते जाने की जिद्द पर अड़े हों
समय से भी आगे भाग जाते हैं
जैसे हम भविष्य में खड़े हों
दौड़ता-भागता शहर
मैं कहती, ज़रा ठहर
चीखता-चिल्लाता शहर
मेरी सुन नहीं पाता शहर
कानों को बंद किए हुए
यह चीखता-चिल्लाता शहर
आवाज़ों और चीख-पुकार में डूबा हुआ
शांति और चुप्पी से ऊबा हुआ
दबी आवाज़ों से कर के रुसवाई
शोरगुल का जाकर महबूबा हुआ
चीखता-चिल्लाता शहर
मेरी सुन नहीं पाता शहर
चमचमाता शहर
मुझे रात में जगाकर
रातों को भुलाता शहर
दिन-सा चमचमाता शहर
हर दिन हर पहर
रोश्नी में नहाया शहर
कोई गली अंधेरी न रहे
चकाचौंध हो हर डगर
चमचमाता शहर
मुझे रात में जगाता शहर
दौड़ता-भागता शहर
जो कभी जाता ठहर
तो मैं उससे पूछती
क्या होगा, सबसे आगे जाकर
अपने सब पीछे न छूट जाएंगे
कैसे सुनेगा उनको, भला
वो जो कभी रोएंगे, चिल्लाएंगे
देख तेरे ही शोर के आगे
वो घुटेंगे, कुचल जाएंगे
तेरी इसी चकाचौंध से
आंखें तेरी चौंधियां जाएंगी
ऐसे में भला कभी अपनों को कैसे देख पाएंगी
— नीतू सिंह
बहुत खूब !
बहुत खूब !
शुक्रिया
प्रिय सखी नीतू जी, आपने बिलकुल दुरुस्त फरमाया है. यह शहर न रुकता है, न झुकता है. अति सुंदर प्रस्तुति के लिए आभार.
आभार
बहन नीतू जी, शहर की भाग दौड़ और चकाचौन्द भरी जिंदगी का चित्रण करती सुन्दर कविता के लिए बधाई
शुक्रिया