2017 की राहें आसान नहीं समाजवादी मिशन की
समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह यादव और उनके भाई शिवपाल यादव पूरी ताकत व मनोयोग के साथ प्रदेश में 2017 के विधानसभा चुनावों में सत्ता में वापस आने की कोशिश में जुट गये हैं। सपा मुखिया पार्टी, संगठन व सरकार के कील कांटों को जातिगत, धार्मिक, सामाजिक आधार पर पूरी तरह से ठीक करने में जुट गये हैं। यही कारण है कि पार्टी का जनाधार बढ़ाने के लिये जो लोग पार्टी से किसी न किसी कारण से नाराज होकर बाहर चले गये थे उन्हें भी राज्यसभा व विधानपरिषद का टिकट देकर उनकी पार्टी में पुनर्वापसी तय की जा रही है। समाजवादी पार्टी में बेनी प्रसाद वर्मा, किरन पाल सिंह व अमर सिंह की फिर से वापसी हो गयी है।
सबसे अधिक चौंकाने वाली वापसी बेनी प्रसाद वर्मा की रही।यह वही बेनी प्रसाद वर्मा हैं जो कभी पानी पी-पीकर मुलायम सिंह के खिलाफ अपमानजनक शब्दों का प्रयोग करते रहते थे तथा राहुल गांधी को रात में दो बजे भी पीएम बनवाने का सपना देख करते थे। लेकिन अपने पुत्र का राजनैतिक वनवास समाप्त करने के लिए सम्भवतः बेनी प्रसाद वर्मा को सपा में आना पड़ा है जिसका उन्हें लाभ भी हुआ है और वह राज्यसभा में जा रहे हैं , इसी प्रकार का राजनैतिक वनवास अमर सिंह का भी पूरा हुआ है।
बेनी प्रसाद वर्मा और पूर्व बेसिक शिक्षामंत्री किरनपाल सिंह की वापसी का ऐलान सपा मुखिया मुलायम सिंह ने एक प्रेस वार्ता के दौरान किया और कहा कि उनकी वापसी का संदेश पूरे यूपी तक ही नहीं अपितु दिल्ली तक जायेगा और अब दिल्ली दूर नहीं है। सपा के इस अभियान से जहां कांग्रेस के पीके अभियान को गहरा आघात लगा है। वहीं प्रदेश में बिहार के मुख्यमंत्री नीतिश कुमार की बढ़ रही तेज सक्रियता को जातिगत आधार पर एक गहरी चोट भी है।
राजनैतिक विश्लेषकों का मानना है कि बेनी प्रसाद वर्मा बाराबंकी जिले के कददावर कुर्मी नेता हैं। वर्मा का आसपास के कुर्मी, मुस्लिम बाहुल्य जिलों में अच्छा खासा प्रभाव है। यदि आजम खां सहित कुछ मुस्लिम वर्ग सपा से नाराज होता भी है तो उसकी भरपाई बेनी प्रसाद वर्मा के बहाने हो जायेगी। सपा छोड़ने के पूर्व बाराबंकी जिले में समाजवादी का मतलब बेनीबाबाू ही होता था लेकिन बीच में सपा मुखिया से मनमुटाव होने के कारण बेनी कांग्रेस में चले गये थे। अब इस दौरान कांग्रेस का ग्राफ तेजी से गिर रहा है तथा पीके की अगुवाई में भी कांग्रेस की हालत खस्ता होती दिखलायी पड़ रही है तथा कांग्रेस में उन्ही के जिले के पी एल पुनिया का प्रभाव तेजी से बढ़ रहा था । इसलिए बहानेबाजी करते हुए तथा अपना व अपने बेटे का राजनैतिक वनवास पूरा करने की गरज से फिर से समाजवादी हो गये हैं।
रही बात किरन पाल सिंह की तो वे भी जाट नेता हैं तथा पश्चिमी उप्र में सपा के पास कोई मजबूत जाट नेता नहीं था इसलिए चौधरी अजित सिंह को उन्हीं के घर में घेरने के लिए किरन पाल सिंह को सपा में शामिल किया गया है। अब इन नेताओं की सपा में वापसी अपने क्षेत्रों की राजनीति में कितना गुल खिलायेगी यह तो आने वाला समय ही बतायेगा लेकिन सबसे बड़ी बात यह हो रही है कि बेनी के सपा में आने के बाद बाराबंकी व आसपास के जिलों मे कांग्रेस के अस्त्तित्व को खतरा पैदा हो गया है। अनेक कांग्रेसी कार्यकर्ता पार्टी छोड़ रहे हैं। साथ ही यह भी संभावना प्रतीत हो रही है कि जब इस क्षेत्र में बहुदलीय जोरदार मुकाबला होगा तो कम से कम यह क्षेत्र कांग्रेसमुक्त हो ही जायेगा।
एक प्रकार से जैसे – जैसे प्रदेश का चुनावी वातावरण तैयार हो रहा है उसी प्रकार से आयाराम और गयाराम भी प्रारम्भ हो गया है। सपा वंशवाद व जातिवाद की राजनीति करने वाली पार्टी है। यही कारण हे कि बेनी प्रसाद वर्मा हों या फिर अमर सिंह सरीखे नेता जो कभी न कभी सपा मुखिया के लिए अपमानजनक शब्दों का प्रयोग करते थे अब वही नेता अपना राजनैतिक वनवास खत्म करने के लिए और लाल बत्ती की गहरी लालसा के चलते आखिरकार सपा का दामन थामने को मजबूर हो ही गये हैं। सबसे अधिक फायदा बेनी बाबू को होने जा रहा है इस बात की संभावना व्यक्त की जा रही है कि उनके बेटे को अगले साल विधानसभा का उम्मीदवार बना दिया जाये। ज्ञातव्य है कि मोदी लहर के बीच 2014 में बेनी प्रसाद वर्मा गोंडा संसदीय क्षेत्र के चुनाव में चौथे नंबर में चले गये थे। दूसरी तरफ कांग्रेस पर इन सबका कोई प्रभाव पड़ता नहीं दिखलायी पड़ रहा है। हालांकि मीडिया में कहा जा रहा है कि कहीं कांग्रेस पार्टी अब पीके के प्रभाव के कारण बिखर तो नहीं रही है और यह उसका पहला बड़ा चरण हो।
अमर सिंह अपना राजनैतिक वनवास पूरा करने के लिए बहुत उत्सुक तथा लालायित थे। वे राज्यसभा में जाने के लिए भाजपा की भी चरण वंदना कर रहे थे तथा पीएम मोदी के गुणगान किया करते थे लेकिन उनका वनवास भी अंततः वहीं पर पूरा हुआ है जहां पर कभी कहा करते थे वे जहर खा लेंगे लेकिन सपा में नहीं जायेंगे। लेकिन अब जहर भी नहीं खाया और सपा में भी चले गये हैं। अब प्रदेश की जनता जनार्दन को ही इन नेताओं का असली भविष्य तय करना होगा। सभी नेता केवल और केवल सत्ता के लालची होते हैं और अंतिम सांस तक गददी पर रहना चाहते हैं। यह नेताओं का वर्ग चरित्र है।
दूसरी ओर प्रदेश में हुए दो विधानसभा उपचुनाव समाजवादी पार्टी के सबसे बड़ी प्रतिष्ठा का सवाल बने हुए थे जिन्हें आखिरकार कड़े संघर्ष के बाद वह जीतने में सफल रही है। लेकिन इन उपचुनावों के परिणाम देखकर नहीं कहा जा सकता कि 2017 में समाजवादियों की राह बेहद आसान होने जा रही है जैसा कि सपा प्रवक्ता राजेंद्र चैधरी आदि कहने लग गये हैं। जंगीपुर व बिलारी सीट पर समाजवादी पार्टी ने विजय जरूर हासिल की है लेकिन मनोवैज्ञानिक नजरिये से भाजपा के वोट प्रतिशत में पहले से कहीं अधिक इजाफा हुआ है। यह उन परिस्थितियों में हुआ है जब बसपा और कांग्रेस सहित अन्य छोटे दल मैदान में नहीं थे।
हालांकि अभी सपा को ही खुश होने का अवसर प्राप्त हआ है तथा अब वह यह कह सकती है कि जिस प्रकार से बंगाल और तमिलनाडु में पूर्व सरकारों की ही वापसी हुई उसी प्रकार से 2017 में भी समाजवाद की ही वापसी होगी । वैसे यह कहना अभी बहुत कठिन है। सपा मुखिया को यह बात भी ध्यान में रखनी होगी कि तमिलनाडु की जनता ने वंशवाद के भ्रष्टाचार को पूरी तरह से नकार दिया है। अभी यूपी की राजनीति में बहुत उथल – पुथल होने वाली हैं। दबाव में समाजवादी और कांग्रेसी आने वाले है। जबकि बसपा और भाजपा को लाभ ही हो सकता है नुकसान नहीं। यही कारण है कि समाजवादी गांव- गांव, गली- गली साइकिल चलचा रहे हैं और सपा मुखिया अपना जातिगत व संगठनात्मक गणित पटरी पार लाने का प्रयास कर रहे हैं।
दूसरी तरफ खबर यह भी है कि समाजवादी पार्टी अब नाराज मुस्लिम समाज को मनाने के लिए प्रदेश सरकार की नौकरियों में 13.5 प्रतिशत आरक्षण का लालच देकर चुनाव मैदान में जा सकती है। दूसरी ओर नाराज मुस्लिम समाज को मनाने की गरज से सपा मुखिया मुलायम सिंह ने मौलाना इमाम बुखारी को चुनाव पूर्व किये गये सभी वायदों को पूरा करने का भरोसा दिलाया है। अगर समाजवादियों ने एक बार फिर मुस्लिम तुष्टीकरण की राह पकड़ी तो असम जैसा परिणाम प्रदेश में भी आ सकता है।
— मृत्युंजय दीक्षित