ग़ज़ल
हाल अपना बेहाल कौन करे
कौन उलझे सवाल कौन करे
अपने-अपने में ही गुम हैं सब
दूसरों का ख्याल कौन करे
जिंदगानी थी चार दिन की ही
चार दिन का मलाल कौन करे
इश्क से हम तो दूर ही अच्छे
अपना जीना मुहाल कौन करे
जुर्म अपना कबूल करके खुद
यहाँ कायम मिसाल कौन करे
दोनों ही मुँह फुलाए बैठे हैं
बातचीत अब बहाल कौन करे
दिल है खंडहर पुरानी यादों का
इसकी अब देखभाल कौन करे
जुदाई ही बन गई मुकद्दर जब
फिर उम्मीद-ए-विसाल कौन करे
— भरत मल्होत्रा