ग़ज़ल
तनहा कटे मेरा सफर तुम को इस से क्या
मंजिल मिले ना रहगुज़र तुम को इस से क्या
तुम गैर की महफिल में खुशी बांटते रहो
उदास मेरी शाम-ओ-सहर तुम को इस से क्या
तुम डूबे रहो अपनी सलामती की फिक्र में
मैं रेज़ा रेज़ा जाऊँ बिखर तुम को इस से क्या
सारे शहर की सुर्खियों में तुम ही तुम रहो
मेरी कहीं कोई ना खबर तुम को इस से क्या
साकी तू मय उँड़ेल रकीबों के जाम में
मैं घूंट घूंट पिऊँ जहर तुम को इस से क्या
नश्तर चलाओ मिल के ज़माने के साथ तुम
हो ज़ख्म ज़ख्म मेरा जिगर तुम को इस से क्या
तुम लौट के ना आए गए वक्त की मानिंद
दर पे जमी थी मेरी नज़र तुम को इस से क्या
— भरत मल्होत्रा
मल्होत्रा साहब आपको पढ़ कर मज़ा आता है