क्या वेद ईश्वर के विषय में सच में जानते हैं ?
ईश्वरवादियों का सबसे प्रमुख ग्रन्थ है ऋग्वेद , ऋग्वेद जिसके बारे में कहा जाता है की ईश्वर ने सबसे पहले उतारा ऋषि के ह्रदय में ।
ईश्वरवादी वैदिक कहते है की वेदों में स्पष्ट कहा गया है की ईश्वर सृष्टि का निर्माता है , परन्तु यदि आप ऋग्वेद पढ़ेंगे तो स्वयं पाएंगे की जिस तथकथित ईश्वर के होने का और ब्रह्माण्ड के निर्माता का होने का दावा वे वेदों को लेके करते है वे स्वयं ही ईश्वर तथा उसके निर्माता होने के दावे को ख़ारिज कर देते हैं ।
देखिये ऋग्वेद,मंडल 10 सूक्त 129 मन्त्र 5-6
“कौन संपुर्ण रूप से जानता है और कौन इस सृष्टि के विषय में कह सकता है ? यह सृष्टि किन कारणों से उत्पन्न हुई है ?देवतागण भूत सृष्टि के बाद उत्पन्न हुए हैं ।यह विश्व जिससे उत्पन्न हुआ है , उसे कौन जानता है ?
यह विशेष सृष्टि जिससे उतपन्न हुई है , पता नहीं वह इसे धारण करता है अथवा नहीं। विस्तृत आकाश में जो इसका अध्यक्ष है ,पता नहीं वह उसे जानता है की नहीं ”
यह बड़ा आस्चर्य हैं की जब कहा गया है की वेद ईश्वर कृत हैं , यानि ईश्वर ने वेदों को प्रकट किया है तो उसकी वेद का मंत्रदृष्टा ईश्वर के बारे में यह कह रहा है की ईश्वर है भी की नहीं कौन जानता है और उसने सृष्टि बनाई है यह कौन जानता है ।
दरसल ये हुआ कैसे ? ईश्वर को सिद्ध करते करते अचानक अंतिम में जाके ऐसा क्या हुआ की ईश्वर के बारे में इतनी अनिश्चतता व्यक्त करनी पड़ी ?
हुआ यूँ की भारतीय समाज में कई समूह ऐसे थे जो ईश्वर जैसी किसी सत्ता को नहीं मानते थे और वैदिक कर्मकांडो की जम के विरोध करते थे, उनके दर्शन समाज में ख़ासे प्रचलित थे ।जैसे की बुद्ध के पहले गुरु आलार कलाम , लोकायत , अजित केसकम्बली ,कपिल , कस्यप ,संजय वेल्टीठपुत्त ,मक्खिलि गोसाल और बुद्ध आदि कई ऐसे दार्शनिक और तर्कवादी थे जिनसे वैदिकों का सामना कदम कदम पर हो रहा था ।
अजित केसकम्बली का कहना था ‘ मनुष्य चार तत्वों से बना है और मरने के बाद चारो तत्व अपने अपने तत्वों में मिल जाते हैं , उनकी संज्ञाएँ शून्य में विलीन हो जाती है ।जो भिक्षा दान की शिक्षा दे वह मुर्ख है ,जो ईश्वर का अस्त्तिव मानते हैं वे अहंकार और अनर्गल बात करते हैं ।मृत्यु होने के बाद कुछ शेष नहीं रहता ”
बुद्ध का अनात्मवाद भी आत्मा और परमात्मा का खंडन करता है ।चार्वाक दर्शन प्रत्यक्ष प्रमाण पर आधारित था ।
जाहिर सी बात है इन दार्शनिको की शिक्षाएं समाज में व्यापक रूप से फैली हुई थीं ।जिसका सामना वैदिक मत के लोग आसानी से नहीं कर पा रहे थे , वैदिकों के ईश्वरवादी तर्क धरसाइ हो रहे थे ।
काशी जैसे क्षेत्र वैदिक विरोधी थे और तर्क शास्त्र में
उन्नत थे , बुद्ध का पहला वैचारिक क्षेत्र काशी ही था उसके बाद मगध ।धर्मग्रन्थो में काशी को शुद्रो और नास्तिको का देश कहा है ।
महाभारत में जिन क्षेत्रो में क्षत्रिय नरसंहार की गया है उन क्षेत्रो की लंबी लिस्ट है जिसमे काशी भी है ।
आप समझ ही रहे होंगे की बुद्ध तथा और वैदिक विरोधी दार्शनिक विचारो का प्रबल क्षेत्र रहा होगा काशी।
बुद्ध के पहले गुरु आलार कालाम काशी के पास सुल्तानपुर के थे और वे नास्तिक कपिल दर्शन के विशेषज्ञ थे ।
अत: वैदिकों को अंत में आके जब अवैदिक दर्शनों के तर्किक शिक्षाओ से मुकबला करना कठिन हुआ होगा तो उसने अपने सबसे प्रचीन ग्रन्थ में बदलाव किये होंगे और ईश्वर के विषय में संशयवादी बना होगा।
– संजय (केशव)
केशव भाई ,लेख अच्छा लगा . मेरा मानना है किः भगवान् है या नहीं ,इस पर बहस करना अनुचित नहीं क्योंकि अगर लोग मानते है किः कोई भगवान् है तो फिर संसार में इतनी चोरीआं झूठ फरेब करते समय इन लोगों को दिखाई क्यों नहीं देता किः कोई शक्ति हमें देख रही है . अगर भगवान् को मानने से वोह रक्षा करता है ,तो सोमनाथ के मन्द्र की इतनी दुर्गात्ती किओं हुई , गजनवी को तो कोई डर नहीं लगा और भगवान् बेबस हुआ सब देखता रहा .
भाई केशव जी, मैं ग्रंथों की जानकारी तो नही रखता किन्तु इतना समझता हूँ की नास्तिक होना अपने अस्तित्व को नकारने के जैसा है, यदि मैं हूँ तो निश्चित ही किसी उर्जा से मेरा निर्माण हुआ होगा और यही बात ब्रह्माण्ड और सृस्ष्टि पर भी सटीक बैठती है, हाँ मैं मानता हूँ की हमें तार्किक होना चाहिये