धरती माँ है
खोद रहा है आदमी
विकास के नाम पर
कर रहा है
धरती का सीना छलनी !
फिर भी चुपचाप
सह रही है
इसकी चुप्पी
कुछ कह रही है
माँ हूँ तुम्हारी
रक्षा करो
विकास चाहिए
या विनाश
चुनाव करो
तुम्हारा मार्ग
विकास की तरफ नही
विनाश को ओर रहा है
ये तो माँ है
ममता धारण किये
सहती जा रही है
गैंती, बेलचों और
बड़ी-बड़ी मशीनों की
घातक चोटें l
खडी कर दी हैं
गगनचुम्बी ईमारतें
दबी जा रही
भोज तले माँ
हवा और पानी
भूल गए हैं अपनी राह
बह रहे हैं
प्लास्टिक और लोहे की
पाईपों में
धरा प्यासी है
फसल, रसायनों से
उगाई जा रही
गाड़ियां बढ़ती जा रही हैं
बुधि हावी होकर
विवेक को कुतर रही है
विज्ञान शस्त्र से मानव
काटता जा रहा है
हाथों को , पैरों को
माँ के हर अंग को
सीता सी धरती
निश्छल व शांत
ममता के वश
सह रही है हर पीड़ा चुपचाप
धरती का बेटा – मानव
रक्षक नही
भक्षक बन बैठा है !
यातनाएँ दे रहा है
जिसने जीने का आधार दिया
सुख- सुविधाएँ दी
विज्ञान के उन्माद में
भूल गया
धरती माँ है !
— अर्जुन सिंह नेगी
बहुत खूब ….धरती माँ है ,मगर इंसान हर रोज कुपूत ही बनता जा रहा है ….सुंदर सृजन हेतु बधाई अर्जुन नेगी जी ….!
धन्यवाद, आपकी प्रतिक्रिया से हैसला मिलता है
प्रिय अर्जुन भाई जी, धरती माँ के अतुलनीय धैर्य का कोई जवाब नहीं. अति सुंदर व सार्थक कविता के लिए आभार.