लघुकथा- षडयंत्र
बारहवे के दिन भाइयों में बहस होने लगी.
“ भैया ! आप से पूछा था. आप दोनों ने ‘हाँ’ कहा था इसलिए मम्मी की सारी रकमजेवरात बहन को दे दी थी .” मझला बोला तो छोटे ने एतराज किया, “ आप ने झूठ बोला था. रकम पर बहनबेटी का नहीं बहूबेटी का हक़ होता है, इसलिए सभी रकम सभी औरतों के बीच भी बराबर बंटनी चाहिए.”
“ पर छोटे ! वह तो हम बहन को दे चुके हैं .”
यह सुनते ही वह बिफर पड़ा, “ हम नहीं, आप. आप से किस ने कहा था निर्णय लेने के लिए ? आप जानते हैं कि पैतृक संपति में सभी भाइयों का बराबर हक होता है.”
“ आप सब से पूछ कर निर्णय लिया था. मगर जाने दे. आज के दिन झगड़ा नहीं करते. इसलिए आप बताइए क्या करना है ?”
“ बहन से सभी रकमजेवरात ले कर हम सब में बराबर बाँट दो.” बड़े भैया ने निर्णय सुनाया तो मंझला बोला, “ भैया ! आप सब से पूछ कर, पंचो के सामने बहन को रकमजेवरात दिए थे . उस से वापस कैसे मांग लूं ? ऐसा कीजिए, आप ही वापस मांग लीजिए.”
यह सुन कर दोनों भाई भड़क गए. झगड़ा इतना बड़ा की दोनों नाराज हो कर अपने-अपने शहर जाने के लिए बस स्टैंड पहुँच गए, “ भैया ! कैसी रही ?” मुस्कराते हुए छोटे बोला.
“ बहुत खूब रही छोटे. मान गए तुझे. यदि हम ठीक ढंग से बारहवां निपटा देते तो हमें मम्मी के इलाज और क्रियाकर्म के अपने-अपने हिस्से के दो-दो लाख रूपए देना पड़ते.”
— ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”
लघु कथा वास्तविक जीवन का एक करूप चेहरा दिखा रही है जो ९९% सच है .
प्रिय ओमप्रकाश भाई जी, आज मां-बहिन जैसे रिश्तों पर भी षड़यंत्र की काली छाया पड़ गई है. अति सुंदर व सार्थक लघु कथा के लिए आभार.