मुक्तक
दोहा मुक्तक
भाषा पर भाषण करें आशा पठवत गाँव
शहरी जीवन घुट रहा वहाँ नही अब छाँव
माया की चौसर फिरे लिया सबहि मति घेर
ज्ञान मरे अज्ञान से रहे लगावत दाँव
छुओ नित चाँद तारों को यही चाहत हमारी है
कदम चूमे ज़मीं दिनकर यही अरमा हमारी है
बहर मे खिल ग़ज़ल सरिता घटायें बन के सावन’ की
नमन करते सितारे हो यही आशिष हमारी है
यही संगम सुधारा है जहाँ प्यारा नज़ारा है
चली गंगा के संग यमुना यही भारत हमारा है
बहे मन ज्ञान की गंगा सजग नाविक नज़ारों मे
यहाँ रसखान तुलसी ने सगर सागर सँवारा है
— राजकिशोर मिश्र ‘राज’