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आर्यसमाज के नियमों पर आर्यसमाज का पौराणिक विद्वानों से शास्त्रार्थ और उसकी एक विशेष उपलब्धि

ओ३म्

हिसार के टोहाना कस्बे में सन् 1908 में आर्यसमाज और पौराणिकों के बीच एक शास्त्रार्थ हुआ था। इसका विवरण आज आर्यसमाज के विद्वान् पंडित इन्द्रजित् देव जी ने हमें सुनाया। आर्य संगीत रामायण के रचयिता श्री जसवन्त सिंह जी टोहाना के ही निवासी थे। आप आर्यसमाजी थे। टोहाना में सन् 1904 में आर्यसमाज की स्थापना हुई थी। सन् 1908 में यहां आर्यसमाज और पौराणिकों के बीच एक ऐतिहासिक शास्त्रार्थ हुआ। शास्त्रार्थ में आर्यसमाज का पक्ष आर्यसमाजी विद्वान प्रो. राजाराम (लाहौर) ने प्रस्तुत किया और पौराणिकों की ओर से पं. लक्ष्मी नारायण थे। इस शास्त्रार्थ की अध्यक्षता श्री उद्यमीराम पटवारी ने की थी। शास्त्रार्थ आरम्भ होने पर आर्यसमाज के विद्वान श्री राजाराम ने पौराणिक विद्वान से पूछा कि शास्त्रार्थ का विषय क्या है? पौराणिक विद्वान बोले कि आर्यसमाज के नियम शास्त्रार्थ का विषय है। श्री राजाराम जी बोले, ठीक है, परन्तु आर्यसमाज के नियमों को तो आप भी मानते हैं। पंडित जी ने कहा कि नहीं, हम आर्यसमाज के नियमों को नहीं मानते। राजाराम जी ने उन्हें कहा कि आप कागज पर लिख दो कि हम आर्यसमाज के एक भी नियम को नहीं मानते। उन्होंने यह बात लिख दी।

राजाराम जी ने कहा कि आर्यसमाज का चौथा नियम है कि सत्य के ग्रहण करने और असत्य के छोड़ने में सर्वदा उद्यत रहना चाहिये। क्योंकि आप यह नियम नहीं मानते अतः आपका नियम हुआ कि असत्य के ग्रहण करने और सत्य के छोड़ने में सर्वदा उद्यत रहना चाहिये। आर्यसमाज का पांचवा नियम है कि सब काम धर्मानुसार अर्थात् सत्य और असत्य का विचार करके करने चाहियें। आपका नियम हुआ कि सब काम अधर्म के अनुसार करने चाहियें और सत्य और असत्य का विचार नहीं करना चाहिये। आर्यसमाज का छठां नियम है कि संसार का उपकार करना इस समाज का मुख्य उद्देश्य है, अर्थात् शारीरिक, आत्मिक और सामाजिक उन्नति करना। आपका नियम हुआ कि संसार का उपकार न करना आपका मुख्य उद्देश्य है। आर्यसमाज का सातवां नियम है कि सब से प्रीतिपूर्वक धर्मानसुर यथायोग्य वर्तना चाहिये। आपका नियम हुआ कि सबसे द्वेष पूर्वक, अधर्म के अनसुर तथा यथायोग्य नहीं वर्तना चाहिये। आर्यसमाज का आठवां नियम है कि अविद्या का नाश और विद्या की वृद्धि करनी चाहिये। आपका नियम हुआ कि विद्या का नाश और अविद्या की वृद्धि करनी चाहिये। आर्यसमाज का नौवां नियम है कि प्रत्येक को अपनी ही उन्नति से सन्तुष्ट न रहना चाहिये, किन्तु सब की उन्नति में अपनी उन्नति समझनी चाहिये। आपका नियम हुआ कि प्रत्येक को अपनी ही उन्नति से सन्तुष्ट रहना चाहिये, किन्तु सबकी उन्नति में अपनी उन्नति नहीं समझनी चाहिये। आर्यसमाज का दसवां नियम है कि सब मनुष्यों को सामाजिक सर्वहितकारी नियम पालने में परतन्त्र रहना चाहिए और प्रत्येक हितकारी नियम के पालन में सब स्वतन्त्र रहें। आपका नियम हुआ कि सब मनुष्यों को सामाजिक सर्वहितकारी नियम पालने में परतन्त्र नहीं अपितु स्वतन्त्र रहना चाहिये और प्रत्येक हितकारी नियम में सब स्वतन्त्र न होकर परतन्त्र रहें।

आर्य विद्वान प्रो. राजाराम जी की बातों का पौराणिक विद्वान पं. लक्ष्मी नारायण जी से उत्तर नहीं बना। इस प्रकार आर्यसमाज ने यह शास्त्रार्थ जीत लिया। शास्त्रार्थ के अगले दिन श्री उद्यमी राम पटवारी आर्यसमाज टोहाना में आये। आर्यसमाज का सदस्यता फार्म मांगा और उसे भरकर आर्यसमाजी बन गये। उनके कुल परिवार में पीढ़ी दर पीढ़ी सभी आर्यसमाजी रहे। उनका पुत्र आर्यसमाज नयाबांस, दिल्ली का प्रधान बना।

इस शास्त्रार्थ को सुनने के लिए दर्शकों में युवक मनसाराम जी भी बैठे थे। उन्हें अपने परिवार में पौराणिक रीति से पूजा पाठ व अन्य कृत्य करने पड़ते थे। इस शास्त्रार्थ को देख व सुन कर आपका हृदय परिवर्तन हो गया। उन्होंने पौराणिक कर्मकाण्ड छोड़ दिया। वह काशी जाकर पढ़े और आर्यसमाज के शास्त्रार्थ महारथी बने। उनके दो प्रसिद्ध ग्रन्थ हैं पौराणिक पोल प्रकश और पौराणिक पोप और वैदिक तोप दो महत्वपूर्ण विशालकाय ग्रन्थ है। वर्णव्यवस्था पर भी आपकी एक विवेचना पूर्ण महत्वपूर्ण पुस्तक है।

इस शास्त्रार्थ का विवरण सुनाकर पंडित इन्द्रजित् देव जी ने हमें कहा कि इस शास्त्रार्थ की आर्यसमाज के लिए सबसे बड़ी उपलब्धि पं. मनसाराम जी की प्राप्ति रही।

हम आशा करते हैं कि पाठक इस ऐतिहासिक संस्मरण को पसन्द करेंगे और इस जानकारी को लाभकारी पायेंगे।

मनमोहन कुमार आर्य

 

2 thoughts on “आर्यसमाज के नियमों पर आर्यसमाज का पौराणिक विद्वानों से शास्त्रार्थ और उसकी एक विशेष उपलब्धि

  • लीला तिवानी

    प्रिय मनमोहन भाई जी, कभी-कभी एक ही बात जीवन को सकारात्मक रूप से परिवर्तित कर जीवन के एक नया मोड़ दे देती है.

    • मनमोहन कुमार आर्य

      नमस्ते एवं हार्दिक धन्यवाद बहिन जी। मैं आपके विचारों से पूर्ण रूप से सहमत हूँ मेरे साथ भी ऐसा ही हुआ। एक मित्र की संगति ने जीवन ही मोड़ दिया।

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