क्लेश व दुःखों से बचने के लिए मनुष्यों को तपस्वी बनना चाहिये: स्वामी श्रद्धानन्द
ओ३म्
-गुरुकुल पौंधा के वार्षिकोत्सव के समापन दिवस पर पं. धर्मपाल शास्त्री एवं स्वामी श्रद्धानन्द जी के मार्मिक प्रवचन-
श्रीमद्दयानन्द आर्षज्योर्तिमठ गुरुकुल, पौंधा देहरादून के सतरहवें वार्षिकोत्सव के समापन दिवस पर प्रवचन करते हुए आर्य जगत के वयोवृद्ध विद्वान पं. धर्मपाल शास्त्री ने कहा कि सन् 1934 में आर्यसमाज के विद्वान श्री राजेन्द्रनाथ शास्त्री ने गुरुकुल गौतमनगर, दिल्ली की स्थापना की थी। 2 तीन महीने चलकर यह गुरुकुल बन्द हो गया था। बीच में इस गुरुकुल में दो-तीन आचार्य आये परन्तु गुरुकुल नहीं चला। छत्तीस-सैंतीस वर्ष पूर्व आचार्य हरिदेव यहां दो-चार ब्रह्मचारी लेकर आये और इस गुरुकुल गौतमनगर का उद्धार किया। आचार्य हरिदेव जी ने तब से अब तक जितने भी विघ्न व बाधायें आयीं उन सब व्यवधानों व कठिनाईयों का सफलतापूर्वक सामना किया। आचार्य हरिदेव जी आरम्भ में इस गुरुकुल के ब्रह्मचारियों को स्वयं पढ़ाते भी थे और उनके भोजन की व्यवस्था भी करते थे। परमात्मा में निष्ठा हो, संकल्प सत्य हो व अपेक्षित पुरूषार्थ करने पर यह हो नहीं सकता कि मनुष्य को सफलता न मिले। इनके होने पर रास्ते की सभी बाधायें दूर हो जाती हैं, उन्नति होती है। गुरुकुल गौतमनगर, दिल्ली के बाद आचार्य हरिदेव जी ने हरयाणा में मंझावली में दूसरा गुरुकुल खोला और इसी परम्परा में देहरादून का पौंधा में यह तीसरा गुरुकुल है। इस गुरुकुल को स्थापित हुए 16 वर्ष हो गये हैं। आचार्य हरिदेव जी संन्यास आश्रम में प्रवेश कर अब स्वामी प्रणवानन्द सरस्वती के रूप में हमारे सामने हैं। इनका व आचार्य धनन्जय जी का तप व परिश्रम हमारे सामने हैं। पं. धर्मपाल शास्त्री ने सहस्रों की संख्या ने उपस्थित श्रोताओं को कहा कि आप भारत भर के गुरुकुलों को जाकर देख लो, इस गुरुकुल के सामने सब फीके पड़ जायेंगे।
पं. धर्मपाल शास्त्री ने कहा कि किसी मनुष्य की 4 दिन की जिन्दगी 100 काम आती है और किसी की 100 वर्ष की जिन्दमी में कुछ नहीं होता। उन्होंने स्वामी प्रणवानन्द जी के गुरुकुल आन्दोलन की चर्चा को जारी रखते हुए कहा कि स्वामी जी ने उड़ीसा में बालकों के लिए अलग व बालिकाओं के लिए अलग दो गुरुकुल खोले। एक गुरुकुल गोमत अलीगढ़ में और एक गुरुकुल छत्तीसगढ़ में खोला। केरल में एक गुरुकुल खोला। वहां सोलह-सतरह विद्यार्थी अध्ययनरत है। उनके आचार्य भी इस उत्सव में पधारे हुए हैं। यहां उपस्थित सभी ऋषि भक्तों का दायित्व हो जाता है कि इन गुरुकुलों के संचालन में किसी प्रकार की कोई बाधा न आने पाये। आप इन गुरुकुलों के लिए तन मन व धन से सहयोग करें। अपने वक्तव्य को विराम देते हुए पं. धर्मपाल शास्त्री जी ने कहा कि जो व्यक्ति थक कर बैठ जाता है उसे मन्जिल नहीं मिला करती।
पं. धर्मपाल शास्त्री के पश्चात आर्यजगत के विख्यात गीतकार और भजनोपदेशक पं. सत्यपाल पथिक, अमृतसर ने अपना एक स्वरचित और प्रिय भजन प्रस्तुत किया। उन्होंने कहा कि लोग पं. गुरुदत्त, पं. लेखराम, स्वामी श्रद्धानन्द और महाशय अमीचन्द को पागल कहा करते थे। इन्हीं की भावनाओं पर आधारित उन्होंने अपनी संगीतमय रचना ‘‘मैं पागल हूं दीवाना हूं, मैं मस्त मस्त मस्ताना हूं। जो शमा जलाई ऋषिवर ने, उस शमा का मैं परवाना हूं” को गहरे भक्तिभाव में भरकर प्रस्तुत किया जिसे सुनकर श्रोताओं के रूप में उपस्थित सभी ऋषिभक्त इन महान आत्माओं के त्याग व बलिदान की भावनाओं में एकाकार होकर भाव विभोर हो गये और अनेक लोग अपनी अश्रुधारा को बहने से रोक नहीं पाये। उन्हें आंखों को पोछते हुए देखा गया जो यह सिद्ध कर रहा था भजन लेखक व गायक पं. सत्यपाल सरल अपने दोनों कार्यों में सफल रहें है और इस भजन के श्रोताओं के हृदय में प्रविष्ट होकर अपना प्रभाव अश्रुओं के रूप में दिखाने से यह सफल रहा है। भजन वा गीत की समाप्ती पर तालियों की गड़गड़ाहट ने भी भजन की महत्ता को सिद्ध कर दिया।
इस भजन के बाद गुरुकुल गोमत अलीगढ़ उत्तर प्रदेश के आचार्य स्वामी श्रद्धानन्द जी का प्रवचन हुआ। उन्होंने अपने सम्बोधन में आचार्य चाणक्य का उल्लेख कर उनके द्वारा प्रस्तुत प्रश्न ‘सुखस्य किम् मूलम? का उल्लेख किया और बताया कि प्राणी मात्र जीवन में सुख की चाहना करते हैं। आचार्य चाणक्य के इस प्रश्न का उत्तर प्रस्तुत कर उन्होंने कहा कि सुखस्य मूलम् धर्म अर्थात् सुख का मूल, कारण व आधार धर्म होता है। धर्म के आचरण से सुखों की प्राप्ति होती है। इसके बाद उन्होंने प्रश्न किया कि धर्म का मूल क्या है? इसका उत्तर प्रस्तुत करते हुए उन्होंने कहा कि उपनिषदों में धर्म के तीन स्कन्धों यज्ञ, तप और गुरुकुल वासी ब्रह्मचारी का वर्णन किया गया है। इनको अपनाने से धर्म बढ़ता है। धर्म के कार्यों की रक्षा व उनके पालन से आचरित धर्म से सुखों की प्राप्ति होती है। यज्ञ धर्म का प्रथम स्कन्ध है। इसे किसी मनुष्य को नहीं छोड़ना चाहिये। ऋषि परम्परा के ग्रन्थों के निरन्तर स्वाध्याय व उनकी शिक्षाओं के आचरण, पालन व धारण से धर्म की रक्षा होती है। सुपात्रों को दान देने से भी धर्म की रक्षा होती है। सुपात्रों परीक्षा कर उन्हें अवश्य ही दान देना चाहिये। सुपात्रों को दिये गये दान से सुख, यश व परलोक में सुख की प्राप्ती होती है, ऐसा ऋषि दयानन्द का मत है।
धर्म का दूसरा स्कन्ध तप है। जो मनुष्य तप नहीं करता उसके जीवन में निश्चय ही सन्ताप व दुःख आतें हैं तथा विघ्न व बाधायें आती हैं। मनुष्य को जीवन में तप अवश्य करना चाहिये। स्कूल में पढ़ने वाले बच्चों को विद्यार्थी कहते हैं और गुरुकुल में पढ़ने वालों को तपस्वी या ब्रह्मचारी। क्लेश व दुःखों से बचने के लिए मनुष्यों को तपस्वी बनना चाहिये। विघ्न व बाधाओं को सहन करने का नाम तप है। मान व अपमान से ऊपर उठना व अपमान को भी सहन करना तप है। ब्रह्मचारी को आचार्यकुल अर्थात् गुरुकुल में रहना चाहिये जिससे उसका शारीरिक, बौद्धिक व आत्मिक विकास होगा और वह द्विजत्व को प्राप्त होगा। स्वामी श्रद्धानन्द जी ने इस प्रसंग को प्रस्तुत कर गुरुकुलों में आयोजित होने वाले उपनयन, वेदारम्भ व समावर्तन संस्कारों की चर्चा भी की व उनके स्वरूप पर प्रकाश डाला। स्वामी जी ने समावर्तन पर ब्रह्मचारी को दिये जाने वाले उपदेश, सत्यं वद, धर्म चर, स्वाध्यायान्मा प्रमदः आदि वाक्यों की चर्चा भी की। स्वामीजी ने कहा कि समावर्तन पर आचार्य ब्रह्मचारी को यह भी उपदेश करता है कि यदि तुमने हमारे भीतर कोई दुगुर्ण देखा हो तो उसकी अनदेखी कर देना और जो गुण देखें हो उसे अपनाकर उनका आचरण करना। ब्रह्मचारियों को गुरुकुलों में आर्ष ग्रन्थों, जो विद्या के स्रोत हैं और अविद्या रहित हैं, की शिक्षा दी जाती है। उन्होंने कहा कि गुरुकुलों में ज्ञान, विद्या, देशभक्ति, माता-पिता का आदर-सत्कार व सेवा तथा चरित्र की जो शिक्षा मिलती है वह दुनियां के किसी स्कूल में नहीं मिलती। स्वामी प्रणवानन्द जी द्वारा किये गये व किये जा रहे वैदिक शिक्षा प्रचार व प्रसार के कार्यों की स्वामी श्रद्धानन्द ने प्रशंसा की। उन्होंने कहा कि गुरुकुल पौंधा का उत्सव, उत्सव न होकर विशाल मेला बन गया है।
स्वामी श्रद्धानन्द ने कहा कि हम सबको गुरुकुलों को सींचना चाहिये। उन्होंने कहा कि संसार के श्रेष्ठ कार्यों में दान एक है और सबसे बड़ा व श्रेष्ठ दान विद्या का दान है। दान विषयक वेद सम्मत यह सिद्धान्त मनु महाराज का दिया है। स्वामी जी ने कहा कि आचार्य और ब्रह्मचारी का परस्पर संबंध पिता व पुत्र का होता है। स्वामी जी ने प्रश्न किया कि पुण्य क्या होता है? इसका उत्तर देते हुए उन्होंने कहा कि सबसे बड़ा पुण्य ब्रह्मचर्य से युक्त जीवन होता है। ब्रह्मचर्य से बढ़कर संसार में दूसरा कोई पुण्य नहीं होता। स्वामीजी ने ईश्वर की चर्चा की और कहा कि ईश्वर का ज्ञान वेद है जो उसने हमें सृष्टि के आरम्भ में दिया था। यह वेद ही संसार, ईश्वर व आत्मा विषयक सभी सत्य विद्याओं का स्रोत है। इन वेदों का अध्ययन ही हमारे गुरुकुलों में कराया जाता है। उन्होंने सहस्रों की संख्या में उपस्थित धर्म प्रेमी ऋषिभक्तों को गुरुकुलों को तन, मन व धन से सींचने का आह्वान किया। स्वामी जी ने जैनियों द्वारा कलशों की निलामी की चर्चा कर कहा कि कोई दान छोटा नहीं होता। सामर्थ्यानुसार सबको दान देना चाहिये। अन्तिम वाक्य ‘आप गुरुकुलों को जितना दान दे सकते हैं, अवश्य दें’ कह कर अपने वक्तव्य को विराम दिया।
गुरुकुल का उत्सव हर दृष्टि से सफल रहा। हम आशा करते हैं कि पाठक उपर्युक्त उपदेशों व विचारों को उपयोगी पायेंगे। इतिहास के संरक्षण की दृष्टि से भी यह वर्तमान व भावी विद्वानों के लिए उपयोगी होगा, ऐसी आशा करते हैं। इति।
–मनमोहन कुमार आर्य
बहुत अच्छे प्रवचन !
नमस्ते एवं हार्दिक धन्यवाद आदरणीय श्री विजय जी।
प्रिय मनमोहन भाई जी, यह सही है, किसी मनुष्य की 4 दिन की जिन्दगी 100 काम आती है और किसी की 100 वर्ष की जिन्दमी में कुछ नहीं होता. स्वामी विवेकानंद जी का उदाहरण हमारे सम्मुख है. भजन की स्थाई औए प्रवचन प्रेरक लगे. अति सुंदर आलेख के लिए आभार.
नमस्ते एवं हार्दिक धन्यवाद आदरणीय बहिन जी। संसार में हुवे सभी महापुरुषों का अपनी अपनी ज्ञान व सामर्थ्य के अनुसार योगदान रहा है किसी का कुछ कम और किसी का अधिक। कुछ ऐसे भी हुवे हैं जिनसे बहुत से मनुष्यों का जीवन दुखमय बना है। जिस प्रकार से हाथ की उंगलिया समान अर्थात लम्बाई में बराबर नहीं है उसी प्रकार से महापुरुषों का भी योगदान है किसी का अधिक और किसी का कम। आज कल जिसका प्रचार अधिक होता है और जिसके अनुयायी अधिक होते हैं वही बड़ा माना जाता है। आजकल तुलनात्मक अध्ययन न होने से हम विद्वानों व महापुरुषों की अच्छी और बुरी बातो को जान नहीं पाते। सभी महापुरुषों का परस्पर तुलनात्मक अध्ययन हो इसमें आधुनिक समय में कोई बुराई नहीं है। सादर।