गीतिका/ग़ज़ल

ग़ज़ल

 

नदी के पास तुम न आओगे आखिर कब तक ,
प्यास शबनम से यूँ बुझाओगे आखिर कब तक।

गुरूर किसी का रहा नहीं है ज़रूर टूटता है
हम भी देखेंगे कहर ढाओगे आख़िर कब तक ।

उसकी फितरत ही नहीं अपना गिरेबां झांके ,
तुम उसे प्यार से समझाओगे आखिर कब तक।

दलील प्यार की ले आओगे बोला था तो फिर,
अब बताओ कि कभी लाओगे आख़िर कब तक।

वक्त़ के साथ ही मौसम भी बदल जाता है
अब कहो शाख़ पर मुरझाओगे आख़िर कब तक।

‘शुभदा’ तो दिल की भली है मगर तुम ही कह दो
मैं भली कह के ही बहलाओगे आखिर कब तक

— शुभदा बाजपेई

2 thoughts on “ग़ज़ल

  • अर्जुन सिंह नेगी

    सुन्दर ग़ज़ल

  • विजय कुमार सिंघल

    बहुत शानदार ग़ज़ल !

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