मैं सूर्य-किरण हूं
मैं सूर्य-किरण हूं
मैं अपने सूर्य की किरण हूं
मैं सूर्य की किरण होते हुए भी
सूर्य से कतई अलग नहीं हूं
ठीक वैसे ही जैसे
सागर से उसकी लहर
जुदा नहीं है
जीवात्मा से परमात्मा
अलग नहीं है
उसी तरह
सूर्य में मैं हूं
सूर्य मुझमें है
मैं ही सूर्य हूं
मैं सूर्य-किरण हूं.
बहुत सुन्दर कविता, बहिन जी !
प्रिय विजय भाई जी, अति सुंदर व सार्थक टिप्पणी के लिए आभार.
बहुत अच्छी रचना। बधाई स्वीकार करें। यह निवेदन है कि दार्शनिक आधार व गुण, कर्म व स्वभाव के अनुसार ईश्वर व जीवात्मा दोनों एक दुसरे से पृथक एवं भिन्न हैं। दोनों का परस्पर व्याप्य-व्यापक सम्बन्ध है। पिता पुत्र व माता पुत्र के समान ईश्वर व जीवात्मा का सम्बन्ध है। सादर।
प्रिय मनमोहन भाई जी, यह जानकर अत्यंत हर्ष हुआ, कि आपको रचना बहुत अच्छी लगी. हमें तो सूर्य-किरण ने जो बताया, हमने वही लिखा. वैसे हमारी तरह ही शायद सूर्य-किरण ने भी यह सुन रखा हो, ”ईश्वर अंश जीव अविनाशी” होते हुए भी मनुष्य को अपने को ईश्वर का अंश मानने में भी कई जन्म लग जाते है. एक बार उसने अपने को सही मायनों में ईश्वर का अंश स्वीकार कर लिया, तो फिर ईश्वर से एकात्मता में देरी नहीं लगती. कृपया इस प्रतिक्रिया पर अपने विचार बताइएगा. यह भी सत्संग का एक समुचित मंच हो जाएगा. अति सुंदर व सार्थक टिप्पणी के लिए आभार.
सुन्दर कविता ,लीला बहन .
सुन्दर कविता ,लीला बहन .
प्रिय गुरमैल भाई जी, अति सुंदर व सार्थक प्रतिक्रिया के लिए आभार.
प्रिय गुरमैल भाई जी, अति सुंदर व सार्थक प्रतिक्रिया के लिए आभार.
वाहह लाजवाब सृजन के लिए बधाई बहन जी
प्रिय राजकिशोर भाई जी, अति सुंदर व सार्थक प्रतिक्रिया के लिए शुक्रिया.
प्रिय राजकिशोर भाई जी, अति सुंदर व सार्थक प्रतिक्रिया के लिए शुक्रिया.