पेंशन बनाम एनपीएस
सन् 2000
हरिनाथ कुँए के ठन्डे-ठन्डे पानी को देह पर उड़ेल-उड़ेलकर हरि ॐ, हरि ॐ का जाप कर रहे थे कि दीनानाथ ने अपने घर की चौखट से ही कुंए पर आवाज़ लगाई -“दादा जी। जल्दी-जल्दी नहाइए नहीं तो देर हो जाएगी।”
हरिनाथ का मकान गाँव की कच्ची सड़क के किनारे ही बना था। घर से लगकर सड़क के ठीक किनारे कुआं था जहां वह पिछले बीस सालों की दिनचर्या अनुसार इत्मीनान से स्नान कर रहे थे।
“दादा जी! आप सुन रहे हो मुझे।“
देह को तौलिए से रगड़ते हुए हरिनाथ बोले “हां हां बेटा सुन रहा हूँ। पिछले बीस सालों में देर नहीं हुई तो आज कैसे हो जाएगी। ह ह हा।“
सूर्य की किरणों में अस्सी साल की देह एकदम चिकनी चमक रही थी और हंसी धूप में घुलती जा रही थी। घी-तेल का असर साफ़ उभर कर आ रहा था। दो-चार हाथ मारकर ही उन्होंने अपनी बाल्टी भर ली और दीनानाथ की ओर चल दिए।
“और बता। तेरी पढ़ाई कैसी चल रही है?”
“बढ़ियां दादा जी। एकदम मस्त।“
“तो इस बार कम्पटीशन निकाल लेगा?”
“जी दादा जी। लगता तो ऐसा ही है। आप बताओ कैसे हो?”
“बढियां। एकदम मस्त।“ कहकर हरिनाथ खिलखिलाकर हंस पड़े।
“कहाँ मस्त? बूढ़े हो चले हो। देखो बाकी बचे बाल भी पक गए हैं।“
“ह हा। मुझ से भी जवान कोई है क्या?” कहकर अपनी खिचड़ी मूँछों को ताव देने लगे।
“हम्म! वो तो है। देखना इस बार ऐसी मालिश करूँगा कि और जवान हो जाओगे।“
“अरे नहीं बेटा! तू अपने हाथ पढ़ने-लिखने में लगा। मेरे ऊपर खर्च मत कर। मुझ बूढ़े का क्या भरोसा? आज हूँ, कल नहीं। बस, तू कुछ बन जाए तो मैं अंतिम सांस चैन से ले सकूँगा।“
“लो कर लो बात। अभी बड़े जवान-शवान बन रहे थे और पलभर में बूढ़े हो गए।“
“अच्छा बेटू। अब देरी नहीं हो रही। ज़रा देख तेरी अम्मा ने कुछ खाने को बनाया है या….।“
इतने में जयवंती कढ़छी हाथ में लिए रसोई से बाहर निकल आई।
“जी बाबूजी। आप बैठिए तो सही।“
“क्या बनाया है आज…आज तो कुछ खास बनना चाहिए भई…पेंशन वाला दिन है।“
“बिल्कुल बाबूजी! सब आपकी पसंद का बना है।“
“तो फिर लगा दे झटपट…मगर ज़रा ठहर…आदिनाथ कहाँ है?”
“अरे वो तो खेत गए हैं बाबूजी। उनका रास्ता मत देखिए वरना पोस्ट आफिस समय से नहीं पहुँच पाएंगे।“
“ठीक कह रही हो बहू…..चल बेटा दीनानाथ…तू ही बैठ जा संग निभाने के लिए। बाप नहीं तो बेटा सही। असल नहीं तो मूल ही सही। ह हा हा।“
*****
साँझ ढलने लगी थी। कच्चे रास्ते से गड़ेरिए अपनी भेड़ें हाँकते निकल रहे थे। कुछ गायों के भी झुंड थे जिन्हें कोई हाँकता नज़र नहीं आ रहा था। शायद स्वत: घर लौट रही थीं या कहीं आस-पास कोई ग्वाला हो तो दीख नहीं पड़ रहा था। दिखाई भी कैसे देता। आदिनाथ की आंखें तो बाबूजी का रास्ता निहार रही थी।
“अजी सुनते हो।“
जयवंती की मीठी गुहार सुन ड्योढी पर खड़ा आदिनाथ भीतर आंगन में चला आया।
“कहो! क्या कह रही थी?”
“अरे बाबूजी आते होंगे…”
बीच में ही टोक के आदिनाथ बोला।
“तो मैं भी तो उन्हीं की राह देख रहा था।“
“ओफ्फो! राह मत देखो। दो बाल्टी पानी खींच लाओ। वे आंगन में ही हाथ-मुंह धो लेंगे तो सुभीता हो जाएगा। कहाँ थके-हारे आएंगे तो कुंए पर जाएंगे और पानी खींचते बैठेंगे।“
आदिनाथ के दिमाग की बत्ती जली -“सही कहती हो।“
बाल्टी डोर लेकर आदिनाथ कुँए पर चला गया। अभी बाल्टी कुंए में डाली ही थी कि दोनों दादा-पोते घड़घड़ाते हुए बुलेट पर सवार दरवाज़े पर पहुँच गए। आदिनाथ भी पीछे-पीछे पानी से भरी बाल्टियां लिए आ पहुँचा।
आंगन में बिछी खाट पर हरिनाथ बैठे और अपना झोला खोलने लगे कि जयवंती ने टोका।
“अरे बाबूजी हाथ-मुँह तो धो लिजीए। कुछ मीठा पानी कीजिए फिर भी अपनी पोटली खोलिएगा।“
“अरे बहू। कहाँ पानी भागा जा रहा है या कहाँ मैं भागा जा रहा हूँ।“
दीनानाथ बोला “तो दादाजी की पोटली भी कहाँ भागी जा रही है।“
हरिनाथ सबकी बातों को दरकिनार करते हुए मचलते बच्चे की तरह अपने झोले से सामान निकाल रहे थे।
सबसे पहले उसने एक बनियान निकालकर आदिनाथ की ओर बढ़ा दी। “वो छेद वाली बनियान अब फेंक दे नहीं तो मैं उसके छेद में से कुँआ खोद के निकाल दूँगा। जयवंती!!”
“जी बाउजी”
“इसके बनियान का तुरंत पोंछा बना दे नहीं तो यह नई बनियान ट्रंक में डाल के फटी बनियान फिर पहन लेगा।“
“जी बाउजी? तू भी अपना जला हुआ चकला भी फेंक दे।“ कहकर बाउजी ने लकड़ी का नया चकला और बेलन निकाल कर जयवंती को थमा दिया।
कुछ देर तो जयवंती हर्ष मिश्रित आश्चर्य से नए चकले-बेलन को देखती रही। फिर जैसे स्वप्न से जागती हुई सी बोली –“आपने कब देखा…मतलब..आपको कैसे..”
“कैसे मतलब क्या? अंधा थोड़े ही हूँ। देखा नहीं क्या मैंने, उस दिन गीले चकले को जल्दी-जल्दी सुखाने के चक्कर में आग के पास रख दिया था और तेरे लौटने तक उसका एक किनारा जल कर साफ़ हो गया। इतने दिन से जले हुए किनारे से बच-बचाकर रोटी बना रही है। रोटी भी सीधी नहीं बन रही आजकल। अपना स्वाद बिगाड़ाना नहीं चाहता। कुछ ही दिन जिऊँ मगर मजे में जिऊँ।“ कहते हुए हरिनाथ ने पेंशन की सारी रकम जयवंती के हाथ में दे दी।
“कुछ दिन क्यों बाउजी, आप को तो मेरी भी उमर लग जाए। आप नहीं होंगे तो घर कैसे चलेगा। दीनानाथ की पढ़ाई का क्या होगा।“ आदिनाथ तड़पकर बोले।
उतनी ही तड़्प से हरिनाथ बोले –“अरे पगले। तेरी उम्र मुझे क्यों लगे। मैं तो जी ही रहा हूँ तुम लोगों के लिए। बस आदिनाथ अपने पैरों पर खड़ा हो जाए। मुझे छुट्टी मिलेगी। इस चपरासी की नौकरी ने मुझे जवानी में कुछ दिया हो या न दिया हो, बुढ़ापे में पेंशन देकर मेरी उम्र बढ़ा दी और मेरा परिवार खुशहाल कर दिया। मैं तो जी ही रहा हूँ पेंशन लेने के लिए।“
*****
सन् 2050
हरीश अगले दिन ऑफिस जाने के लिए सामान निकाल रहे थे। फाइल-फोल्डर, अपने कार्ड निकाल कर गिन रहे थे जिसमें पहचान कार्ड, आधार कार्ड, पैन कार्ड, वोटर कार्ड, पेट्रोल कार्ड, ड्राइविंग कार्ड, ब्ल्ड डोनेश्न का कार्ड, क्लब कार्ड, डोर लॉक-ऑपेन कार्ड, कंप्यूटर लॉक-ऑपेन कार्ड, बैंक कार्ड समेत सत्तर-पच्चहत्तर और कार्ड थे जिसकी आज के अप्रत्याशित जीवन में कभी भी, कहीं भी अचानक आवश्यकता पड़ जाती है। अगले दिन के लिए नई सिलाई ड्रेस और रुमाल, पेन आदि पहले ही बिस्तर पर सजा चुके थे। उन्होंने अभी अपना यूवी कोट निकालकर बेड पर रखा और याद करने लगे कि तीस-पैंतीस साल पहले ज़िंदगी कितनी आसान थी। इतना सब ताम-झाम नहीं था। मसलन यह यूवी कोट ही ले लो। प्रदूषण ने यह हाल कर दिया है कि बाहर निकलते ही अल्ट्रावाइलेट किरणें त्वचा को ही छेद कर आर-पार हो जाती हैं। जैसे आदमी न हों रूई के फाहे हों। उन बेचारे गरीब लोगों का क्या जो यू-वी कोट जैसी आधारभूत सुविधा भी नहीं खरीद पाते। बेचारे रात में ही निकलते हैं या फिर दिन में पराबैंगनी किरणों का शिकार होते हैं।
हरीश की तंद्रा तोड़ने के लिए बेडरूम के दरवाज़े पर दस्तक हुई। हरीश ने चौंक कर कहा – “अरे आदिल! जया! आओ अंदर आओ।“
“हैलो डैड” “हैलो डैड”
“हैलो….आओ बैठो”
जया और आदिल कुर्सी खींचकर बैठ गए और हरीश अपने मखमली बिस्तर पर धप्प से बैठ गया।
जया और आदिल ने एक दूसरे की आंखों में देख जैसे कह रहे हों कि तुम कहो- तुम कहो। फिर आदिल हिम्मत करके बोला।
“डैड…आप कल रिटायर हो रहे हैं न..।“
हरीश ने सिर झुका लिया और कारपेट को देखते हुए सिर हिलाकर ही हामी भरी। जैसे कि जानते हों कि जिस गंभीर बात पर चर्चा होने वाली है या जिस बात को वह टाल रहे थे वह अब और नहीं टाली जा सकती है।
“डैड! मैं आपकी बहुत इज़्ज़त करता हूँ मगर…।“
“बेटा! इज़्ज़त की बात तो न करो। इस शब्द का आज के युग में कोई अर्थ नहीं रहा है। बुज़ुर्गों की इज़्ज़त तो तभी खत्म होनी शुरू हो गई थी जब हम बच्चे थे। तुम बच्चों ने तो इज़्ज़त का कोई नमूना तक नहीं देखा है पैदा होने के बाद। यह भूमिका बांधना छोड़ो और कहो जो कहना चाहते हो।“
“डैड!…हम्म…वो डैड! क्या है न कि…यू नो ना कि मेरी पच्चहत्तर लाख कि इंकम में से चालीस लाख तो घर के किराए में ही जाते हैं और आप वाला ज़माना तो रहा नहीं कि पीने का पानी आसानी से मिल जाए इसलिए पैंतीस लाख तो बस महीने के पीने और खाना बनाने के पानी में चले जाते हैं…।“
“जानता हूँ बेटा। इसी घर में रहता हूँ कोई बाहरवाला थोड़े ही हूँ।“
आदिल ने जैसे सुना ही नहीं –“ …और जया के पच्चासी लाख में से बड़ी मुश्किल से घर का खाना-पीना, पहनना-ओढना, आना-जाना हो पाता है…।“
“हम्म”
“…आपकी नब्बे लाख की तनख़्वाह से हरिश के ट्यूशन, सिंगिंग, इंस्ट्रूमेंटल, स्वीमिंग, स्केटिंग, समर कैम्प, प्रोजेक्ट वर्क आदि का खर्चा निकलता था….अब तक..।“
“हां वो तो है।“
“..कल के बाद से वह तनख़्वाह आना भी बंद हो जाएगी..।“
“मैं भी इसी बारे में सोच रहा था।“
“…आपकी ज़िंदगी भर की जो सेविंग एनपीएस में गई थी उसका एक बड़ा हिस्सा तो पिछले शेयर मार्केट क्रैश में खत्म हो गया…।“
हरीश की चोट पर जैसे किसी ने हथौड़ा दे मारा हो। कराहते हुए से बोले “सो तो है।“
“….जो छोटा हिस्सा बचा भी है उसका भी केवल चालीस प्रतिशत आपको दिया जा रहा है जो कि न के बराबर है।“
हरीश के मुख से अबकी तो बोल भी निकल नहीं पा रहे थे। केवल एक लंबी आह भर कर रह गए। चाहते तो थे किसी शुतुरमुर्ग़ की तरह अपना चश्मा और सुनने वाली मशीन तुरंत निकाल कर रख दें ताकि अनचाहा कुछ भी देखना-सुनना न पड़े।
“….यह छोटा सा हिस्स तो कुछ दिन तक दिनेश के ट्यूशन वगैरह में लगा पाएंगे मगर फिर…”
“फिर क्या सोचा है, क्या करोगे?”
“…फिर…फिर…मैं और जया और ऊँची कंपनियों में ट्राय करेंगे और नहीं तो उसकी कुछ क्लासेस कम कर देंगे।“
“..हम्म..”
“अच्छा डैड!…कल आपका आखिरी दिन है। मुझे बुरा तो बहुत लग रहा है मगर स्लॉटर हाउस में आपके लिए एपॉइंटमेंट तो लेनी ही होगी।“
हरीश ने अत्यंत दु:खी होकर अपनी टुड्डी लगभग सीने में गड़ाते हुए धीमे से पूछा -“ क्या कोई वृद्धाश्रम नहीं बचा है।“
“क्या बोलूँ डैड! यह सरकार बुज़ुर्गों की पेंशन तो अफोर्ड कर नहीं पा रही, वृद्धाश्रमों का खर्चा कहां से बर्दाश्त करेगी। दो-चार हैं भी तो वे राजनेताओं के लिए रिज़र्व्ड हैं। क्योंकि पार्लियामेंट में जो बिल पास हुआ था उसमें यही कहा गया कि नेता तो नब्बे साल तक सेवारत रहकर समाज के काम आ सकते हैं।“
“….हाँ…हाँ…..मुझे याद आ गया। मैं भी कितना बेवकूफ़ हूँ। जब पता है कि सबके साथ होता है तो मेरे साथ क्या नया है।“
अब तक बेडरूम के दरवाज़े से लगकर खड़ा दिनेश सब चुपचाप देख-सुन रहा था और एक बड़े पैमाने तक समझ भी रहा था। अब उससे और खड़ा न रहा गया। वह दौड़कर आया और हरीश के कमज़ोर घुटने से लिपट गया।
“दादू को कहीं नहीं जाने देंगे। कहीं नहीं।“
जया ने दिनेश के बाल और पीठ सहलाते हुए कहा –“यस बेटू। हम भी तो यही चाहते हैं। मगर ऐसा होता नहीं है।“
दिनेश ने पलटकर अपनी मॉम को जवाब दिया –“क्यों नहीं। हम इनको घर में छुप देंगे। किसी को पता ही नहीं चलेगा कि वे हैं भी।“
हरीश ने दिनेश के कंधे पर हाथ रखकर कहा –“नहीं बेटा। कीड़े-मकौड़ों की आबादी में लोगों के पास रहने-खाने की जगह कहाँ है। मैं जाऊँगा तो तुम्हारे लिए धरती पर जगह बनेगी। अब तुम बड़े हो रहे हो तुम्हें अकेले कमरे की ज़रूरत पड़ेगी जो मेरे जाने से मिलेगा….बड़े यूवी कोट की भी ज़रूरत पड़ेग़ी…बहुत मंहगा आता है एक जीवन में एक ही खरीद पाना बहुत मुश्किल है। और फिर आज के युग में साठ साल के बाद तीसों बीमारियां शरीर को घेर लेती हैं। साठ तक जीना ही बहुत है। “
दिनेश ने मुँह झुकाकर कहा –“हाँ मैंने पढ़ा था बीमारियों के बारे में।“
हरीश ने आश्चर्य से कहा –“तुमने कहाँ पढ़ लिया?”
दिनेश चहककर बोला –“इंटरनेट पे”
“ओह!…ऐसे ही थोड़े न तुम्हारा नाम मैने माइक्रोचिप रखा है। जाने कहाँ-कहाँ की जानकारी इस छोटी सी खोपड़ी में भर रखी है।“ कहते-कहते हरीश ने दिनेश का सिर पंजों से दो बार हिला डाला।
“फिर दादू आपका इलाज भी तो कर सकते हैं।“
“ह हा। बेटा इलाज केवल अरबपतियों का होता है। डॉक्टर का खर्चा उठाना आम आदमी की बात नहीं है।“
“मैं बड़ा होकर डॉक्टर बनूँगा। और देखना सबका फ्री में इलाज करूँगा।“
“हाँ बेटा ऐसा ही करना।“
“मगर मैं अभी आपको जाने नहीं दूँगा।“
“नहीं बेटा ऐसी जिद्द नहीं करते। मैंने बताया न मैं बीमार हो जाऊँगा थोड़े दिन में।“
“मैं फिर भी आपको जाने नहीं दूँगा।“
“बेटा मेरी बीमारी दूसरों तक फैलेगी…तुम तक फैली….समाज के लिए अच्छा नहीं होगा।“
“..लेकिन दादू …आई लव यू…”
हरीश ने दिनेश को गले से लगा लिया। वह रोते-रोते सो गया। जया और आदिल ने भी उसे आज दादू के कमरे में सो जाने दिया। हरीश भी इत्मीनान से यह सोचकर सो गए कि कम से कम आख़िरी रात तो चैन से सो जाएं। सारी ज़िंदगी तो दौड़ते-भागते निकल गई मगर हासिल कुछ न हुआ।
*****
हरीश अपने दफ़्तर से निकल रहे थे। हाथ में शाल और फूलों के इतने गुच्छे थे कि वो फूलों से लदे नज़र आ रहे थे। यों तो आदिल के लिए कहीं भी समय पर पहुँचना एक चुनौती है मगर आज हरीश ने पहली बार देखा कि वह समय से पहले ही गाड़ी लेकर पहुँचा हुआ है उसे ….स्लॉटर हाउस ले जाने।
हरीश ने अपना सारा सामन पीछे की सीट पर फेंका और आदिल की बगल वाली सीट पर बैठ गया।
“चलें डैड।“
हरीश मुस्कुराए “हाँ बिल्कुल”
आदिल ने क्लच एक्सेलरेटर दबा दिया “डैड….”
“हम्म”
“आप इतने खुश कैसे हो सकते हो। क्योंकि मैं आज से तीस साल बाद के बारे में इमाजिन करता हूँ….जब दिनेश मुझे ऐसे ही स्लॉटर हाउस मरने के लिए ले जाएगा तो सोचकर ही मेरे रोंग़टे खड़े हो जाते हैं और रोने का दिल करता है।“
“बेटा यह सब मेंटल कंडीशनिंग का कमाल है।“
“मेंटल कंडीशनिंग?”
“हाँ जैसे देशभक्तों को शहीद होने की और आतंकवादियों की भी की जाती है।“
“हम्म। मगर आप किस बात से खुश हैं।“
“कि मैं भी समाज के अब किसी काम का नहीं रहा तो मुझे मर जाना चाहिए जैसे रेस में नहीं दौड़ने वाला घोड़ा, दूध न दे पाने वाली गाय, बीमार कुत्ता या एच वन एन वन वाली मुर्गीयां।“
“लेकिन डैड…..”
“तू बस कर। मुझे चैन से मरने दे। कम से कम मरते समय मुझे मेरे मरने का एहसास कराकर दुखी मत कर। मैं दुखी होकर मरना नहीं चाहता। खुशी-खुशी जाने दे।“
आदिल चुपचाप गाड़ी चलाता चला गया और हरीश रास्तों को मन ही मन अलविदा कहते चले गए।
*****
भूत और भविष्य का नज़ारा अच्छा लगा .
जी। कुछ-कुछ आपके संस्मरणों की तरह। बस यहाँ कल्पना का पुट अधिक है तो वहाँ यथार्थ का।
यह कल्पना, यथार्थ का रूप लेने को बेताब होता नज़र आ रहा है क्योंकि यहाँ कुछ अरसे से शुरू हो गिया है और इस ग्लोबोलाइज़ेशन और इन्तार्नैत के ज़माने में आप की कहानी एक दिन भूतकाल की कहानी रह जायेगी .
सही कहा आपने। इसी डर ने कल्पना का रूप लिया और यही कल्पना यथार्थ का रूप लेगी।
शुक्रिया
सुंदर कहानी
सुंदर कहानी