महर्षि दयानन्द, स्वामी विवेकानन्द और हमारा हमारा देश
ओ३म्
कल 8 जून 2016 को भारत के प्रधान मंत्री श्री नरेन्द्र मोदी जी ने अमेरिका की संसद को संबोधित किया। उनका भाषण अत्यन्त प्रभावशाली था। उन्होंने अपने सम्बोधन में बहुत महत्वपूर्ण बातें कहीं, इसके लिए वह प्रशंसा के पात्र हैं। उनके इस योग्यतापूर्ण व्याख्यान के लिए देश उनका आभारी हैं। जो देशभक्ति और राजनैतिक योग्यता माननीय मोदी जी में है वैसी शायद उनके पूर्व के प्रधानमंत्रियों में कम ही रही हैं। यह देश का सौभाग्य है कि उन जैसा योग्य व्यक्ति देश का प्रधानमंत्री है। हमें उनके नेतृत्व में देशहित की पूरी सम्भावना है और इसके हमारी उनके प्रति पूर्ण शुभकामनायें हैं। अमेरिकी सांसदों ने जिस प्रकार खड़े होकर 9 बार और आरम्भ में लगभग 4 मिनट तक तालियों की गड़गड़ाहट से उनका स्वागत किया यह भी भारत के लिए गर्व की बात है और आगे लिए इतिहास का गवाह बनेगा। हम किसी राजनैतिक दल की विचारधारा से जुड़े नहीं है परन्तु सत्य को सत्य कहना और असत्य को असत्य कहना हमें अपने आचार्य दयानन्द से विरासत में मिला है। प्रधानमंत्री जी भारतीय मानव धर्म व संस्कृति की पहचान हिन्दी में वहां कुछ शब्द नहीं बोले, यह विचारणीय है। हो सकता है कि इस पर विचार कर ही उन्होंने निर्णय किया होगा।
दूसरी बात यह है कि उन्होंने अपने सम्बोधन में स्वामी विवेकानन्द जी का नाम भी लिया। इससे किसी को कोई आपत्ति नहीं हो सकती। महर्षि दयानन्द का वह कभी कहीं उल्लेख नहीं करते और न अमेरिका की संसद में किया, यह हमारे लिए अवश्य दुःखदायी है। हमने जो अध्ययन किया है उससे हमें लगता है कि इस देश के सामाजिक सुधार व देशोत्थान के कार्यों में महर्षि दयानन्द जी की विचारधारा का जो योगदान है वह उनके पूर्ववर्ती व पश्चातवर्ती किसी धार्मिक व सामाजिक व्यक्ति, पुरुष व महापुरुष का नहीं है। वैदिक सनातन धर्म और संस्कृति की रक्षा, उसके पोषण व प्रचार प्रसार में उनका सर्वाधिक सर्वोत्तम व प्रशंसनीय योगदान है। वह सच्चे मानवतावादी महापुरुष थे और ईश्वर की सच्ची व यथार्थ शिक्षाओं का प्रचार करना ही उन्हें अभीष्ट था। किसी व्यक्ति विशेष या लोगों को खुश करना उनका उद्देश्य नहीं था। महर्षि दयानन्द सत्यवादी, स्पष्टवादी तथा मानवता के सर्वाधिक हितैषी महापुरुष थे। वह अपने व पराये, किसी के भी, असत्य को किसी भी स्थिति में स्वीकार नहीं कर सकते थे। इसी कारण वह हमारे राजनीतिक नेताओं की वोट बैंक नीति में फिट नहीं हो सके और स्वतन्त्र भारत में सर्वाधिक योगदान होने पर भी उन्हें वनवास व देश से बाहर कर दिया गया, ऐसा अनेक कारणों से लगता है। आज के समय में हमें लगता है कि मनुष्य का सत्यावादी व स्पष्टवादी होना सद्गुण नहीं अपितु अवगुण माने जाते हैं जिसका उदाहरण स्वयं महर्षि दयानन्द जी हैं। महर्षि दयानन्द ने देश की आजादी विषयक अपने विचारों व आर्यसमाज के अनुयायियों की सबसे अधिक आजादी के आन्दोलन में सहभागिता के कारण ही गुप्त व रहस्यमय विदेशी षडयन्त्र के कारण ही उनका बलिदान हुआ। महर्षि दयानन्द के विचारों के अनुयायी एक नेता चौधरी चरणसिंह ही हुए हैं। स्वामी दयानन्द जी मांसाहार नहीं करते थे अतः दूसरों को इसकी प्रेरणा करने का तो प्रश्न ही नहीं होता। वह असत्य के नाम पर मौन नहीं रहते थे व अपने लाभ के लिए उसका समर्थन नहीं करते थे। उन्होंने पाषाण पूजा, पशुबलि, मांसाहार, धार्मिक व समाजिक असामनता, भेदभाव, छुआछूत, दािलतों क उत्पीड़न आदि मिथ्या मान्यताओं व परम्पराओं का समर्थन न कर मानवजाति के व्यापक हित में उसका विरोध किया। उनका यह कार्य भी बहुत से हमारे देश के कर्णधारों को अनुचित लगता है। उनके विचारों को पढ़ने व समझने का किसी राजनैतिक दल के नेता व उनके अनुयायियों के पास समय नहीं है। हमें यह सब महर्षि दयानन्द के प्रति पक्षपात व अन्याय अनुभव होता है जिसे देखकर दुःख होता है।
सभी मनुष्य निजी तौर पर सत्य का ग्रहण व असत्य का त्याग करने व न करने में स्वतन्त्र हैं। यह अधिकार संविधान प्रदत्त हो सकता है परन्तु ईश्वर प्रदत्त तो यह है ही। हां, मनुष्य सत्य व असत्य रूपी जो कर्म करेगा उसका फल भोगने में वह सच्चिदानन्द सर्वव्यापक व सर्वशक्तिमान ईश्वर की व्यवस्था में अवश्य ही परतन्त्र है, इसमें कोई सन्देह व भ्रान्ति नहीं है। शायद यह बात तो हमारे पौराणिक सनातन भाई भी मानते हैं।
हमें गर्व है कि हम महर्षि दयानन्द के अनुयायी हैं जिन्होंने सत्य के ग्रहण और असत्य के त्याग का नियम ही नहीं दिया अपितु सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, संस्कारविधि ग्रन्थों द्वारा व वेद भाष्य करके सत्य व असत्य के यथार्थ स्वरूप को भी स्पष्ट किया है।
ऋषिराज तेज तेरा चहुं ओर छा रहा है।
तेरे बताये पथ पर सारा जहां आ रहा है।
यह किसी भावुक कवि की यथार्थ पंक्तियां है। यदि मनुष्य को अपना कल्याण करना है तो महर्षि दयानन्द के मार्ग पर उसे आना ही होगा। उनका मार्ग ईश्ष्वर का प्रेरित व प्रकाशित वेदमार्ग ही है। अपना उनका कुछ नहीं है। नान्यः पन्था विद्यतेऽयनायः। धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष मनुष्य जीवन की चरम उन्नति के लक्ष्य हैं और इनकी प्राप्त का एक ही मार्ग है और वह है वेदों का अनुसरण, अनुगमन, आचरण व व्यवहार।
हमने यह पंक्तियां किसी के प्रति किसी दुर्भावना से नहीं लिखी अपितु समाज में सत्य को स्वीकार होता न देख अपनी पीड़ा व्यक्त करने के लिए लिखी हैं।
-मनमोहन कुमार आर्य
मनमोहन भाई ,मोदी जी की अमरीका यात्रा एक माइलस्टोन बन्ने जा रही है जिस को देश हमेशा याद रखेगा .
नमस्ते एवं धन्यवाद। आपके विचार यथार्थ है। मेरे भी यही विचार हैं। सादर।
प्रिय मनमोहन भाई जी, महर्षि दयानन्द जी ने ही सुख-दुःख से ऊपर उठना सिखाया है, यह भी हमें नहीं भूलना चाहिए. अति सुंदर आलेख के लिए आभार.
नमस्ते एवं हार्दिक धन्यवाद आदरणीय बहिन ही। ऋषि दयानन्द के प्रति जब पक्षपात होता देखतें है तो दुःख होता है। दूसरे करें तो कोई बात नहीं वह अपने नहीं, पर यदि अपनी ही करें तो दुःख होना स्वाभाविक है। उनकी जान भी उनके अपने पौराणिक भाइयों ने ही ली थी। “तू ख़ाक उसे करना करना चाहे जो तेरा बेडा पार करें।” सादर।
प्रिय मनमोहन भाई जी, हम आपकी बात से सहमत थे और हैं, पर यही तो परीक्षा की घड़ी है. यहीं हमारे धैर्य की परीक्षा होती है.