ग़ज़ल
जहां धरती से अंबर के सुनहरे तार मिलते हैं,
मेरे महबूब हम तुम आज झील के पार मिलते हैं
बदलते हैं अदाएं रोज़ बिल्कुल चाँद की तरह,
नए से लगते हैं वो हमसे जितनी बार मिलते हैं
पहली बार में ही वो मिले कुछ इस तरह मुझसे,
बिछड़े हुए बरसों के जैसे दो यार मिलते हैं
तमन्ना ही रही बाकी किसी दिन हम सुनें तुमसे,
दिल-ए-बेताब की खातिर चलो दिलदार मिलते हैं
मरम्मत जिन से हो जाए मेरे टूटे हुए दिल की,
कहां पर शहर में इस किस्म के औजार मिलते हैं
कहा मैंने कि मर जाऊँगा मैं तुम बिन तो बोले वो ,
हमें हर रोज़ तुम जैसे कई बीमार मिलते हैं
— भरत मल्होत्रा
कहा मैंने कि मर जाऊँगा मैं तुम बिन तो बोले वो ,
हमें हर रोज़ तुम जैसे कई बीमार मिलते हैं ,,,,,,,,,,, हा हा मजेदार .
कहा मैंने कि मर जाऊँगा मैं तुम बिन तो बोले वो ,
हमें हर रोज़ तुम जैसे कई बीमार मिलते हैं ,,,,,,,,,,, हा हा मजेदार .