दोहे : नारी उवाच
घर का बाहर का करूं, मैं महिला सब काम |
फिर अबला कहकर मुझे, क्यूं करते बदनाम ||
मैं नाजुक सी कामिनी, मैं चंडी विकराल |
मुझसे लाजे कुसुम सब, मैं कालों की काल ||
कुदृष्टि मुझ पर तेरी, क्यूं करता ये भूल |
माता बहना प्रेयसी, हूँ मैं तेरा मूल ||
मैं तेरी सहचरणी हुँ , तू मेरा हमराज |
चिड़िया समझे तू मुझे, क्यूॉ अपने को बाज ||
तेरे मेरे मिलन से, ये जग है गुलजार |
मुझसे तेरी जीत है, मुझ बिन तेरी हार ||
मै अब अबला ना रही, सबला समझो मोय |
छोड़ दम्भ झूठे सभी, मैं समझाऊँ तोय ||
प्रकृति-पुरुष संसार के, हैं दो तत्व विशेष |
हटा दे गर इन्हें तो, नहीं बचे कुछ शेष ||
— विश्वम्भर पाण्डेय ‘व्यग्र’
waah lajawab..
रीना जी बहुत-2 धन्यवाद !