सिक्कों की खनक
चँद सिक्कों की खनक में
ईमान का स्वर खो रहा है
भ्रष्टाचार की अँधेरी गलियों में
मानव निज घर खो रहा है
नौकरी के लिए पहुँच चाहिए
पैसा भी हाथ में बहुत चाहिए
बेरोजगार इस देश का युवा
स्वाभिमान दर ब दर खो रहा है
कार्यालयों में फाईल दबी है
जन सेवक की जेब ठंडी है
हर एक सरकारी कार्यालय से
सेवा का सफ़र खो रहा है
न्यायालयों में न्याय न मिले
न्यायाधीश बिके तो किस से गिले
तराजू लिए खड़ी है देवी
न्याय उसका मगर खो रहा है
बहुत खेले, अब फिक्सिंग करते
विदेशी मुद्रा में देसी मिक्सिंग करते
खेल भी अब खेल हो गया
भावनाओं का असर खो रहा है
चुनाव में मांगो नेताओं से नोट
जो दे, केवल उसे डालो वोट
संसद में भी नोट चल रहे
संविधान भी आदर खो रहा है
मंदिर कमेटी से कमाई हो रही
भगवान के नाम धन उगाही हो रही
दर्शनों में भी स्वार्थ छिपा है
भक्ति का मंजर खो रहा है
हर क्षेत्र में फैला भ्रष्टाचार है
क्या अर्जुन यही सदाचार है
भौतिकता की इस अंध दौड़ में
भगवान् का डर खो रहा है
कविता बहुत अछि लगी जो वर्तमान भारत की तस्वीर है लेकिन यही तस्वीर १९६२ में थी जब मैंने भारत छोड़ा था .लगता है यह कुछ बदलने वाला नहीं है, जब तक भारत का ब्लड ट्रांसप्लांट ना किया जाए .
धन्यवाद भमरा सर सच मे भ्रष्टाचार भारत की बहुत बड़ी बीमारी है और हम सब उससे ग्रस्त हैं हमें आत्म चिंतन करने की भी आवश्यकता है ! प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक धन्यवाद
प्रिय अर्जुन भाई जी, अति सुंदर कविता के लिए आभार.
धन्यवाद बहन