कविता : छूट गयी सजीवता
अँधेरे में झलकती लाइट
गाड़ियों की तार की
केसरिया, लाल रंगों में,
थक जाती है नज़र भी।
कोलाहल-सा चारों ओर;
होड़ है सींगों का
शिकायत है किसी की
“अरे, यह क्या ट्रैफ़िक है!“
रात की सर्दी में भी
बढ़ता है उत्ताप।
अधखुली दुकानों की छतों से परे
टिमटिमाती है आसमान तले
शशि रानी सुनहरी
देकर ममता की चाँदनी।
हँसके वह बोली,
“ओ मेरे बच्चो, ज़रा देखो मेरी ओर,
आज भी मैं हूँ
थके हुए जीवों को दूध पिलानेवाली
अब भी मैं हूँ
ज़रा ऊपर नज़र उठाओ तो”।
— हसारा दसुनि हिरिमुतुगाॅड