संस्मरण

मेरी कहानी 139

कुछ साल बाद भगवान् की रज़ा से पिंकी को एक बेटे की दात मिल गई थी और उधर रीटा को भी एक और बेटा मिल गया था। रीटा और पिंकी अपने सुसराल में बिज़ी हो गई थीं और अब हम संदीप को भी कह रहे थे, कोई लड़की देखने के लिए मगर वह अभी मानता नहीं था। संदीप बिल्स्टन कालज से अपना कोर्स खत्म करके काम पे लग गया था। कुलवंत को अक्सर उसकी सहेलिआं संदीप के लिए लड़की देखने को कहतीं लेकिन संदीप अभी हाँ नहीं कहता था और जब उस ने हाँ की तो कुछ दिन बाद जब कुलवंत गुर्दुआरे में थी तो उस की सखीआं कहने लगी, अब वह भी संदीप का रिश्ता कर ले। कुलवंत ने हंस कर कहा,”तो लड़की कहाँ है?”, तो एक दूर से रिश्ते से जिसका नाम बलबीर है, कुछ लड़किओं की और इशारा करके कहने लगी,” यह है, यह है और यह है, बस तुम हाँ करो “, कुलवंत ने भी हंस कर कह दिया,” मुझे यह लड़की पसंद है”, बात गई आई हो गई। कुछ दिन बाद बलबीर का टेलीफोन आया कि जिस लड़की के बारे में उसने कहा था, उस के माँ बाप चाहते हैं कि हम लड़की देख लें। संदीप भी मान गया। एक दिन फिर गुर्दुआरे में कुलवंत और सखिआं इकठी हुईं और कुलवंत ने कहा कि उसको इस लड़की की दुसरी बहन ज़्यादा पसंद थी। उसने कहा,” इस में कौन सी बड़ी बात है चलो दुसरी देख लो “. जब यह बात कुलवंत ने संदीप को कही कि अब दुसरी लड़की के बारे में बात होनी थी तो संदीप गुस्से हो गया और कहने लगा कि अभी उसने शादी करानी ही नहीं। फिर संदीप ने पिंकी रीटा को बोला कि वह डैडी ममी को कहें कि उसको फ़ोर्स ना करें, जब वह तैयार होगा तो वह खुद बता देगा। बात यहीं खत्म हो गई। बात असल में यह थी कि पहली लड़की कुछ कुछ साँवले रंग की थी और जो दुसरी उस की बहन थी वह गोरे रंग की थी, इसी लिए कुलवंत ने दूसरी लड़की देखने की इच्छा जाहिर की थी।

इस बात को एक साल हो गया और अब संदीप भी हाँ कह रहा था। कुलवंत ने भी अब पूछ ताश करनी शुरू कर दी। मैंने भी अपने दोस्तों से पूछना शुरू कर दिया। एक दिन हम कैंटीन में बैठे ब्रेकफास्ट ले रहे थे। मेरे सामने मेरा दोस्त अवतार बैठा था। अवतार मेरे मामा जी के दूर के भाई का बेटा है। हमारी दोस्ती अवतार के पिता जी अमर सिंह और मेरे पिता जी की इन से दोस्ती के कारण ही हुई थी और इस से पहले मैं अवतार को जानता नहीं था। बातें करते करते मैं ने अवतार को एक साल पहले की बात बताई जब हम संदीप के लिए लड़की देख रहे थे और संदीप ने नाह कर दी थी। लड़की वाले कहाँ रहते हैं, उनका नाम किया है, अवतार मुझ से पूछने लगा तो मैंने उसे बता दिया। अवतार हंस कर कहने लगा, उन को तो वोह जानता है और वे एक दुसरे के घर जाते आते हैं। अवतार फिर बोला, “तो बात आगे चलाऊँ ?”, मैंने भी कह दिया कि वोह उनसे पूछे। फिर अवतार कहने लगा, ” भमरा ! यह चार बहने और एक भाई है, बहुत अच्छी फैमिली है और चारों बहने बहुत ही अच्छी हैं, हम चाहते थे कि दो बहनों की शादी हमारे बेटों से हो जाए लेकिन यह हो नहीं सकता था क्योंकि इन लड़किओं की जो मामी है वह शरीके से मेरी बहन लगती है “, इन लड़किओं के मामा मामी को हम भी जानते थे क्योंकि इन का घर हमारे नज़दीक ही है और इस मामी के पति जागीर सिंह मेरे साथ ही काम करते थे और यह वोही शख्स थे जो यूगांडा से आये थे, यह ब्रिटिश सिटिज़न थे लेकिन एक स्कीम के तहत इन को इंडिया आना पड़ा था और इसी ने ही मुझे बताया था कि बेछक ब्रिटिश हकूमत ने उन के कुछ सिटिज़न इंडिया की हकूमत को ले लेने की बेनती की थी और पैसे भी दिए थे लेकिन इंडिया की हकूमत ने इन लोगों को कोई पैसा नहीं दिया था। इस के कुछ दिन बाद अवतार का टेलीफून आया कि हम सैजली स्ट्रीट गुरदुआरे में आ जाएँ और संदीप को भी ले आयें। कौन सा दिन था मुझे याद नहीं लेकिन उस दिन गुरदुआरे में सिर्फ ग्रंथि ही पाठ कर रहा था। हमारे साथ रीटा भी आ गई थी। माथा टेक कर हम सब बैठ गए जिन में अवतार और उस की पत्नी भी थे । एक गियानी जी आये और हमें परशाद दे दिया और हम सब नीचे लंगर हाल में आ गए। एक औरत हमारे आगे कुछ  मठाई और चाय रख गई और बहू जसविंदर के पिता जी हरजिंदर सिंह कलसी, अवतार और मैं अपने कप ले के कुछ दूर चले गए ताकि औरतें आपस में बातें कर लें। बातें करते करते संदीप और जसविंदर को आपस में बातें करने का अवसर दे दिया गिया। जब उन की बातें ख़तम हुई तो कुछ देर बैठ कर और यह कह कर कि सोच कर बता देंगे, हम अपने अपने घर को चल दिए।
घर आ कर हम ने संदीप को पुछा तो उस ने हाँ कह दिया। हमें कुछ संतोष हो गिया लेकिन फिर भी हम ने उसे दुबारा पुछा तो उस ने कहा कि जसविंदर उस के सुभाव के अनकूल ही थी और उसे पसंद थी। दुसरे दिन मैंने अवतार को संदीप का फैसला बता दिया तो अवतार कहने लगा कि हम दो हफ्ते और सोच विचार कर लें और फिर लड़की वालों को बता देंगे। दो हफ्ते बाद मैंने अवतार को आख़री फैसला सुना दिया। अवतार ने हरजिंदर सिंह से बात की और किसी दिन आ के शगुन देने को बोल दिया। फिर एक दिन हरजिंदर सिंह, उस की पत्नी और जसविंदर की दो बहने हमारे घर आ के संदीप को शगुन दे गए। अब रुकाई या ठाका होने की रसम बाकी थी। इस का इंतजाम भी दो हफ्ते बाद ही तय हो गिया। हम ने अपने नजदीकी रिश्तेदार और दोस्तों को इनवाईट किया था। सब महमानों के लिए भोजन का पर्बंध कर लिया गिया था। एक दो बजे हरजिंदर सिंह अपने तीनों भाईओं और कुछ रिश्तेदारों के साथ  मठाई ले कर आया। घर में रौनक हो गई। कुछ देर बाद संदीप को एक कुर्सी पर बिठा गया और हरजिंदर सिंह ने पहले संदीप की झोली में शगुन डाल के पियार दे दिया और इस  के बाद हरजिंदर सिंह के भाई और अन्य रिश्तेदारों ने एक एक करके शगुन डाल दिया। इस के बाद हमारी ओर से भी सभी ने शगुन डाल दिया। खाने पीने का प्रबंध तो था ही और शाम तक यह सारा काम खत्म हो गया और सभी रुखसत हो  गए।
कुछ महीने हो गए और एक दिन अवतार का फिर टेलीफोन आया कि वह शादी के लिए कह रहे हैं। बात तो समझ में आती थी कि चार बेटिओं के माँ बाप उन की शादी करके सुर्खरू होना चाहते थे । हम ने भी घर में मशवरा किया और संदीप से पुछा, तो उस ने हाँ कर दी। जुलाई का महीना तय हो गया और हम तैयारियां करने लगे। मैंने अपनी छुटीआं बुक करा लीं ताकि आसानी से सारे काम हो सकें। एक बात की हम को ख़ुशी थी कि हमारे घर में इस आख़री शादी के बाद हम ज़िम्मेदारी से सुर्खरू हो जाएंगे। कुलवंत तो मुझ से भी ज़्यादा खुश थी और यह ख़ुशी हर बेटे की माँ को होती ही है। इस में एक बात और भी थी कि मैं उस वक्त 52 साल का था और कुलवंत अभी पचास की भी नहीं हुई थी और हम अपने आप को अभी भी जवान महसूस कर रहे थे क्योंकि शारीरिक दृष्टि से हम तंदरुस्त थे। वक्त का पता ही नहीं चला, कैसे यह महीने बीत गए। कार्ड छपवाने का वक्त आ गया। लिस्ट बन गई और एक दिन मैं और कुलवंत एक गुजराती की कार्ड छापने की प्रिंटिंग प्रैस में चले गए जिसने अभी नई नई प्रैस खोली थी। उस ने डिज़ाइन दिखाये और हम ने एक पसंद कर लिया और आ गए। एक हफ्ते बाद उस का टेलीफोन आ गया कि कार्ड तैयार थे और मैं उसी वक्त ले आया क्योंकि यह प्रैस दूर नहीं थी। जिन रिश्तेदारों और दोस्तों को हम ने कार्ड भेजने थे, लिख लिख कर भेजी जा रहे थे और जिन को खुद जा कर देने थे, हर रोज़ काम से फार्ग हो कर हम चले जाते और कुछ देर उन के घर ठहर कर कार्ड दे आते। शादी से कुछ दिन पहले चुन्नी की रसम होनी थी। निश्चित दिन रीटा, पिंकी और बहादर अपने अपने परिवारों के साथ आ गए और आधे घंटे में हम हरजिंदर सिंह के घर पहुँच गए। चाय पानी के बाद चुन्नी की रसम शुरू हो गई। जसविंदर को एक कुर्सी पर बिठा दिया गया। आज पहली दफा मैंने जसविंदर को अच्छी तरह देखा क्योंकि जिस दिन गुर्दुआरे में बात हुई थी, मैंने कोई ख़ास धियान नहीं दिया था। जसविंदर की कुर्सी के इर्द गिर्द बहुत सी औरतें, कुछ बच्चे खड़े थे। अब संदीप को जसविंदर की मांग में सिन्दूर भरने को कहा गया। संदीप ने सिन्दूर डाल दिया और काफी फोटो खींचे गए। बहुत बातें मुझे अब याद नहीं, इतना याद है कि हम घर को ख़ुशी ख़ुशी लौट रहे थे।
उसी गुर्दुआरे में अब भी यह शादी होनी थी, जिस में हम ने दोनों बेटिओं की शादी की थी और हरजिंदर सिंह ने जो लंच के लिए हाल बुक कराया, वह हमारे घर से गाड़ी में पांच मिंट की दूरी पर ही था और इसका नाम था विक्टोरिया बैंकूईट हाल। यह हाल गेटस स्ट्रीट में होता था लेकिन अब कुछ साल हुए इस को ढहा कर इस जगह पर कुछ मकान बना दिए गए हैं। जो कोच हम ने बुक कराई, उस का ड्राइवर भी कभी हमारे साथ काम किया करता था और इस का नाम था फर्गूसन, जो एक स्कॉटिश था। शादी के दिन संदीप को तैयार करने के लिए जसवीर, अमरजीत, हमारे भतीजे की पत्नी और कुछ और लड़कियां थी और इधर रीटा पिंकी तो बहुत खुश थीं। तैयार हो के हम वक्त पर गुर्दुआरे पहुँच गए और अब भी वही गुर्दुआरा और वही बड़ा दरवाज़ा था , सिर्फ इतना फर्क था कि अब हम लड़के वाले थे और दुसरी ओर से लड़कियां हम पर वार कर रही थीं। आज मुझे बहुत फखर महसूस हो रहा था क्योंकि हमारा समाज ही ऐसा है। भीतर आते ही मिलनी की रसम शुरू हो गई और आज मैं दूसरी ओर खड़ा था। यूं तो मैं और समधी हरजिंदर सिंह इस से पहले भी गुर्दुआरे में अक्सर मिलते रहते थे और हमारा आपसी सनेह भाईओं जैसा ही था। जब हम पहली दफा मिले थे तो मैंने हरजिंदर सिंह को पहले ही कह दिया था कि हम रिश्ते में जरूर समधी हैं लेकिन हमारे विवहार में भाईओं जैसा रिश्ता होना चाहिए। हरजिंदर तो मुझ से भी छै सात साल छोटा है और अब तक हमारे बीच वह ही भाईओं जैसा विवहार है। हम दिल खोल कर बातें किया करते थे। यह ठीक है कि अब मेरे तंदरुस्त ना होने के कारण वह ही कभी कभी पत्नी को ले के आ जाता है लेकिन पांच छी साल से मैं उन के घर नहीं जा सका हूँ।
चाय पानी का इंतज़ाम निचले हाल में ही था। खा पी कर सभी ऊपर के हाल में चले जाते। धीरे धीरे हाल भर गया, संदीप और जसविंदर गुरु ग्रन्थ साहब जी के आगे माथा टेक कर बैठ गए। मैरेज रेजिस्ट्रेशन का काम आज भी गुर्दुआरे में करना तय हो गया था। इंगलैंड के सभी गुर्दुआरों में यह सर्विस उपलभ्द है और इस का फायदा यह है कि वक्त बच जाता है यानि दो दफा यह काम नहीं करना पड़ता। गियानी जी ने आनंद कारज कराया और बाद में रिजिस्ट्रार ने संदीप और जसविंदर से oth लेने के लिए अपनी कार्रवाई की और मैरेज सर्टिफिकेट पकड़ा दिया। मैं ने और हरजिंदर सिंह ने एक दूसरे को बधाई दी और फोटो सैशन शुरू हो गया था। धीरे धीरे सभी महमान विक्टोरिया सुइट की ओर जाने लगे। जब हम पहुंचे तो हाल भर गया था। शादी का बड़ा काम हो गया था और अब सिर्फ मज़े करने का वक्त था। डिस्को वाले हाई वॉलिउम पर रिकार्ड लगा रहे थे, पीने वाले अपने मज़े कर रहे थे। कुछ देर बाद केक की रसम हुई और शैम्पेन की बोतल खुलते ही पटाखे और कॉन्फैटी की बारिश होने लगी और साथ ही डांस शुरू हो गया। आज मैं ने भी जी भर कर भंगड़ा पाया। पांच वजे तक महफ़िल गर्म रही और इस के बाद कुछ घर के महमानों को छोड़ सभी अपने अपने घरों को चल दिए और हम कोच में बैठ कर हरजिंदर सिंह के घर पहुँच गए। सभी आदमी एक कमरे में बैठ गए और औरतें दूसरे कमरे में बैठ गईं। चाय पानी के बाद विदाई की रसम शुरू हो गई। सारा दिन खुश रहने के बाद अब वातावरण गमगीन सा हो गया था। जसविंदर की बहने बहुत रो रही थीं जो सुभावक ही था क्योंकि जिस बहन ने उन के साथ बचपन गुज़ारा था वह अब अपना घर वसाने जा रही थी।
संदीप और जसविंदर गाड़ी में बैठ गए थे और साथ था जसविंदर का भाई प्रदीप। हम सब कोच में बैठ गए और अपने घर की ओर चल दिए। जब बेटिओं की शादी हुई थी तो हम उदास थे लेकिन आज बेटे की शादी पर खुश थे। हम जितना भी मर्ज़ी कह लें कि हम बेटी और बेटे में फरक नहीं करते लेकिन बेटे की शादी पर जो हमारा विवहार होता है, उस से मैं कहूंगा कि यह फरक हमेशा रहेगा क्योंकि जिस समाज में हम रहते हैं उस में उस समय यह फर्क आ जाता है जब हम अपनी बेटी का हाथ किसी दूसरे को पकड़ाते हैं और बेटे की शादी पर किसी और की लड़की हमारे घर आती है। कुछ भी कहें जो हमारी शादियों पर ख़ुशी और गम का मिश्रण होता है, यह इसी तरह रहे तो इस ख़ुशी और गम में भी एक लुतफ है।
चलता. . . . . . . . . . .

4 thoughts on “मेरी कहानी 139

  • लीला तिवानी

    प्रिय गुरमैल भाई जी,
    बल्ले-बल्ले भाई आप सुर्खरू हो गए,
    दी प्रभु ने खुशियों की लाली आप सुर्खरू हो गए-
    एक और अद्भुत एपीसोड के लिए आभार.

    • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

      धन्यवाद जी ,उस समय हम बहुत खुश थे और इसी लिए हम ने इंडिया आने का प्रोग्राम बना लिया था, जिस का ज़िकर जल्दी आने वाला है .

  • Man Mohan Kumar Arya

    नमस्ते आदरणीय श्री गुरमैल सिंह जी। किस्त पढ़ी। अच्छी लगी। हार्दिक धन्यवाद। सादर।

    • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

      धन्यवाद ,मनमोहन भाई .

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