यह कैसा मदर्ज़ डे था, सोहन सिंह की बूड़ी मां ने आज आख़री सांस ली थी। बात यह नहीं थी कि मां इस बर्थडे के दिन हमेशा के लिए उसे छोड़ कर चली गई थी, बातें तो वोह थीं जो बचपन से आज तक उस के सीने में नासूर बन कर हर घड़ी दर्द दे रही थीं। किस को वोह बताता, किस के सीने पर अपना सर रख कर रोता ! उस की पत्नी भी तो आज नहीं थी , वोह तो कैंसर से जूझते जूझते दो छोटे छोटे बच्चों को छोड़ कर इस फानी दुनीआं को छोड़ गई थी। शमशान घाट में कुछ ही लोग उस के साथ गए थे, ज़िआदा लोगों को मां के बारे में उस ने बताया ही नहीं था। लकड़ियों के ढेर में मां का शव पढ़ा था। सोहन सिंह की आंखों में कोई आंसू नहीं थे , वह तो जैसे एक पत्थर हो। उस के दोस्त रघबीर ने उस के कंधे पर हाथ रखा,” सोहन सिंह ! अब आंच देने का वक्त आ गया है, आगे आओ ” ” नहीं दोस्त यह मुझ से नहीं होगा, आंच तुम ही दो “सोहन सिंह की आंखें अब लाल होने लगी थीं। ” तुम बेटे हो सोहन सिंह, यह आप का ही फ़र्ज़ है “, रघबीर बोला। सोहन सिंह ने कुछ सूखा घास उठाया, आग जलाई और मां की चिता को अग्नि भेंट कर दिया। सब लोग वाहेगुरु वाहेगुरु बोलने लगे लेकिन सोहन सिंह उसी वक्त घर की ओर चल पड़ा। रघबीर सिंह उसी वक्त पीछे पीछे आने लगा, सोहन ! ज़रा सुनो तो ! तुम ठीक हो ? लेकिन सोहन सिंह रुका नहीं और सीधे घर पहुंच गया। रघबीर उस के बचपन का दोस्त था, सोहन को अकेले वह कैसे छोड़ सकता था ?, घर पहुंच कर दोस्त के कंधे पर उस ने हाथ रखा और बोला, ” सोहन ! अपने आप को सम्भालो ” लेकिन सोहन सिंह सीधा कमरे के भीतर गया, शराब की बोतल उठाई और एक ग्लास में भर कर सारी की सारी शराब एक दम पी ली।
दोनों दोस्त चुप चुप बैठे थे। सोहन सिंह ने एक और पैग लिया और फूट फूट कर रोने लगा। रघबीर अब कुछ नहीं बोला, उस ने सोचा इस को जी भर कर रोने दिया जाए ताकि उस के मन पर पढ़ा बोझ उतर जाए। कुछ देर तक सोहन रोता रहा, खांसता रहा और फिर गला साफ करके बोलने लगा, ” रघबीर ! मुझे दुख इस बात का नहीं है कि मां अब नहीं रही, दुख तो इस बात का है कि इस ने मुझे जन्म ही क्यों दिया, पिछले जन्म में मैंने क्या गुनाह किया था जो मुझे इस मां का ही बेटा बनना पड़ा “, रघबीर कुछ नहीं बोला, चुप चाप बातें सुनने लगा क्योंकी कुछ कुछ उस को अंदाज़ा हो गया था जो सोहन कहने जा रहा था। सोहन को अब कुछ कुछ नशा हो गया था और अब उस ने लगातार बोलना शुरू कर दिया, “रघबीर ! जब से मैंने होश सम्भाला, मां की हर बात मेरे सीने में एक फिल्म की तरह रिकार्ड हुई पड़ी है, मुझे याद है जब मैं छोटा सा था , पिता जी कहां थे, मुझे नहीं पता और मेरी यही मां एक मर्द के साथ चारपाई पर पढ़ी थी और दोनों जो कर रहे थे, मुझे क्या पता था कि कौन सा खेल, खेल रहे थे, मुझे तो उस शख्स ने कुछ पैसे दे दिए थे कि मैं बाहर जा कर दुकान से कुछ ले लूं, धीरे धीरे ऐसे मर्दों में इज़ाफ़ा होने लगा था। एक दिन मैंने अपने पिता जी को मां को पीटते हुए देखा था, गली के कुछ लोग हमारे घर आ गए थे और मां को बुरा भला कह रहे थे, ऐसे सीन मेरे सामने कितने हुए, मैं क्या बोलूं, पिता जी फैक्ट्री में काम करते थे और अब मां से डरने भी लगे थे, पता नहीं उन दोनों के बीच क्या था जो पिता जी ने भी अब हाथ खड़े कर दिए थे। में बड़ा हुआ, शादी हुई और दो बच्चे हो गए, मेरे पास कोई खास अच्छा काम नहीं था और मां, मेरी पत्नी को भी बात बात पे बहुत गालिआं देती और मैं कुछ ना कर सकता। मेरी पत्नी बहुत भोली भाली थी, मैं उसे घर छोड़ कर कहीं और जाने को कहता तो वह मुझे रोक देती कि हमारे जाने से पिता जी की किया हालत होगी और फिर एक दिन पिता जी हम सब को छोड़ यह संसार छोड़ कर मुकत हो गए। बच्चे अभी छोटे थे और तुझे तो पता ही है,एक दिन पत्नी भी हम सब को छोड़ कर चली गई और मैं टूट गया था। हा हा हा, रघबीर ! आज भगवान ने मदरज डे पर मुझे बहुत बड़ा तोहफा दिया है, इस मां के रिश्ते से मुझे मुक्त कर दिया “
सोहन सिंह अब शराबी हो गया था, रघबीर ने उसे चारपाई पर लिटा दिया और ऊपर एक कंबल दे दिया। जब वह अपने घर की ओर जा रहा था तो उस की आंखों में आंसू थे।
नोट —- मेरा इशारा उन लड़किओं की ओर है जो इस सोशल मीडिआ के ज़माने में आज गलत राह पर चल रही हैं, कल उन के भी बच्चे होंगे, अगर उन के बच्चे अपनी मां का इतहास जानेंगे तो उन पर किया बीतेगी ?
— गुरमेल सिंह भमरा
प्रिय गुरमैल भाई जी, सचमुच बच्चे अपनी मां का ऐसा इतिहास जानकर निश्चय ही इसी तरह का व्यवहार करेंगे. अत्यंत भावभीनी कहानी के लिए आभार.
धन्यवाद जी .
नमस्ते गुरमैल सिंह जी। कहानी का उद्देश्य व कहानी के शब्द अच्छे लगे। काश कि आज सर्वत्र वेदो के ज्ञान का प्रकाश होता तो शायद इस कहानी की आवश्यकता न पड़ती। आज स्थिति यह है कि पढ़े लिखें तथाकथित विद्वान अनपढ़ों से अधिक अपराध करते हैं। अतीत के राजनीतिज्ञों के घोटाले और दफ्तरों में रिश्वत से इसे समझा जा सकता है। सादर।
धन्यवाद मनमोहन भाई ,जो कुछ हम टीवी पर देखते हैं ,वोह १९६० से पहले नाम मातर ही था .आज जो हो रहा है उस को देख कर दुःख होता है .मद्र्ज़ डे अपनी अपनी माओं को याद और रेस्पेक्ट देने का बहुत अच्छा ढंग है लेकिन मैं उन माओं को हरगिज़ इज़त नहीं देता हूँ जिन्होंने अपनी जवानी के दिनों में विभचार किया हो ,बच्चे की पालना तो जानवर भी कर लेते हैं .
हार्दिक धन्यवाद।
धन्यवाद बहना .
धन्यवाद बहना .
अच्छी कहानी। अच्छी सीख।
अच्छी कहानी। अच्छी सीख।