कहानी : राखनवार
मिसिज़ चावला पूरे पांच वर्ष बाद भारत वापस आईं. उनके पति ने अपने घरवालों को खबर तो भेज दी थी परन्तु फिर भी हवाई अड्डे पर कोई दिखाई नही दिया. तेरह घंटों की उड़ान थी. भूख का टाइम गड़बड़ हो जाने से तबीयत खराब हो रही थी. रात का समय. साथ के यात्री सब चले गए. मरता क्या ना करता. वह विजिटर गैलरी पार करके सीधे बाहर आ गईं . बेहतर होगा की वह भोर फूटने पर टैक्सी लेकर घर चली जाएँ . ट्रोली के सहारे चुपचाप एक ओर खड़ी रहीं. सुबह का उजास होने पर उनके देवर नज़र आ गए. वह अपनी मोटर साईकिल पर आये और एक तीन पहियावाले को तय करके उसमे भाभी को घर लिवा लाये.
मिसिज़ चावला को आगे भी जाना था. लखनऊ में भतीजे का विवाह था. देवरजी ने बताया की उसी रात की गाड़ी में सीट करवा दी है. नहाते, खाते, सौगातें निकालते, सारा दीन निकल गया. कमर सीधी करने की भी फुर्सत नहीं मिली. शाम को उसी तरह ऑटोरिक्शा में सामान लादकर वह दिल्ली के स्टेशन पर पहुँचीं. देवर को उगराई लेने आगे जाना था. कूली को गाड़ी का नंबर आदि बता कर वह निकल गए. मिसेज़ चावला कुलियों की धोखाधड़ी के हजारों किस्से थूक के साथ निगलती हुई, डरी सहमी, भगवान् को याद करती कुली की छत्रछाया में जल्दी जल्दी दौड़ती हुई जैसे तैसे गाड़ी में बैठ गईं. बैठते ही गाड़ी चल दी.
ऐसे डिब्बे में वह पहले कभी नहीं बैठी थीं. देवर ने कहा था चेयर कार में सीट है. यहाँ लकड़ी की बेंचें थीं. ऊपर लकड़ी के रैक लगे थे सामान रखने के. जिन पर भी लोग जा बैठे थे. बन्दे से बन्दा चिपका हुआ था. भाग्य से एक और जनानी सवारी उसी बेंच पर बैठी थी अतः किसी ने उनके पास बैठने की कोशिश नहीं की. उस स्त्री का दो साल का बच्चा मिसिज़ चावला से खेलने लगा. स्त्री ने पूछा, ” अांटी आप बाहर से आईं हैं. ?”
”हाँ. कैसे जाना ?” वह केवल मुस्कुरा दी. मिसिज़ चावला का पर्स, साड़ी, सूटकेस ….. सभी तो गवाही दे रहे थे उनके प्रवासी होने की.
तभी टिकट बाबू आ गया . उनका टिकट देख कर बोला, ” गलत डिब्बे में बैठी हैं. टिकट फस्ट क्लास की है. आपको लखनऊ जाना है. यह डिब्बा थर्ड का है और हाथरस पर कट जाएगा . ए० सी० चेयर कार आगे लगी हैं. अगले स्टेशन पर बदल लीजिये .”
मिसिज़ चावला घबराहट में बोलीं, ” अगले स्टेशन पर कुली भेज देंगे आप ?”
‘अगला स्टेशन तो शाहदरा है. गाड़ी केवल पांच मिनट रुकेगी. गाज़ियाबाद पर बदल लीजिएगा.”
भारी सूटकेस, पर्स, बैग और पूरा स्टेशन पार करके जाना. मिसिज़ चावला को पसीना आ गया. चुप चाप दम साधे दिल की बढ़ती धड़कन को थामने की कोशिश करती रहीं . स्टेशन आयेगा तभी तो कुली आयेगा. सब कुछ राम भरोसे.
गाज़ियाबाद का स्टेशन आ गया. बड़े बड़े खम्भोंवाला लंबा प्लेटफार्म ! गाड़ी रुकने के साथ ही एक दुबला पतला मझोले क़द का सामान्य सा आदमी स्वतः उठा. उसने मिसिज़ चावला का सूटकेस व् भारी-भरकम बैग उठाया और आदेशात्मक स्वर में बोला, ”आईये मेरे साथ.”
सहमी सी, बच्ची की तरह वह उसके पीछे चलने लगीं. उसने गाड़ी के अगले हिस्से में उनका डिब्बा ढूँढा, आराम से ऊपर चढ़ा. ठीक उनकी सीट तक पहुँच कर सामान ठिकाने रखा और बोला, ” बैठ जाईये.”
सीट पर बैठकर मिसिज़ चावला ने उसे थैंक्यू कहा. वह फुर्ती से मुड़ा. नमस्ते करी और वापस अपने डिब्बे की ओर चला गया. मिसिज़ चावला उसे जाते हुए देखती रहीं और उनकी आँखों से अविरल आंसू बहते रहे. साथवाली सीट पर बैठी स्त्री ने पूछा, ” भाई थे क्या आपके? छोड़ने आये थे? ”
प्रकट में वह बोलीं, ” हाँ ! ” मन में सोचा, भगवान् थे. हाथ पकड़ने आये थे.
— कादंबरी मेहरा
भाविह्वल कथा