“महंगाई”, मुक्त काव्य
लो कर लो बात कहते हैं मंहगाई है
आखिर पूछो तो ये कहाँ से आई है
खेतों में उगने लगे ईटों के पौध पेड़
अरहर मटर में कहाँ रस मलाई है।।
सात सौ किलो की मीठी मिठाई है
एक सौ बीस की दाल चतुराई है
उगाए किसान गैर लगाए मिर्च तड़का
कड़ाही में तेल घर उसके मनाई है।।
जखीरा जमाखोरी माल उतराई है
दूध दही पावडर में खूब कमाई है
गाय साथ गोबर गन्दगी उठाता वो
सीमेंट संग बालू घाट उतराई है।।
पेट्रोल व डीजल तो हवा हवाई है
एक एक घर में कई हुंडा हुंडाई है
रखने की जगह नहीं बाइक बीमारी
हुर्र हुर्र हलके से हड्डी तुड़ाई है।।
मॉल मालामाल भीड़ उतिराई है
औने पौने दर प्लास्टिक भरपाई है
कालाहिट बेगॉन बैगन का भरता
काकरोच काटेगा घर की दवाई है।।
हवाबाण हरदे पुदीन हरा राई है
रोटी से अधिक आंटा चिकनाई है
लिवर में फंस गया बासमती चोखा
मोटापा से अधिक वजन उतराई है।।
आलू टमाटर भिंडी परवर चौंराइ है
खेतो में अफीम खाद की छंटवाई है
सूखा के नाम पर अरबों की बाट लगी
किसानों के भाग में चवन्नी जो आई है।।
बिजली भी मलमल पानी में नहाईं है
करंट का झटका खंभों में समाई है
तार बेतार हुए टावर का जलसा
टीवी मोबाईल कम्युटर करिश्माई है।।
बहुत गोलमाल जंगलो की कटाई है
गिनती के शेर मौला सेल्फ़ी बनाई है
गौतम अमीरों को दर्शन कराओं तो
ग़रीब घर भोजन ताकत दिखाई है।।
मान गए भाई ये महँगी महंगाई है
घर को चूसने डायन सखी आई है
लगता सियासत की मारी है पगली
लहराती नागिन सी डँसती महंगाई है।।
महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी
प्रिय महातम भाई जी, अति सुंदर कविता के लिए आभार.
प्रिय महातम भाई जी, अति सुंदर कविता के लिए आभार.
सादर धन्यवाद आदरणीय लीला तिवानी जी, हार्दिक आभार