सुक़ून
गर्मियों की छुट्टी में विवेक अपनी माँ के साथ नाना के गाँव गया। पहुँचते ही पुआल का ढेर देख मस्ती करने लगा। बरसात का अंदेशा होने की वजह से गाँव के लगभग हर घर पर छप्पर छाने का काम चल रहा था । मामा को दो मजदूरों के साथ छप्पर छाते देख विवेक बड़े ध्यान से उन्हें देखने लगा।
एकबारगी बगल में बैठी अपनी मम्मी से पूँछ बैठा -“मम्मी, ये मामा छप्पर क्यों छा रहें हैं?? ”
“बरसात का मौसम आने को है न , नया छप्पर नहीं डालेंगे तो घर में पानी टपकेगा।”
“हमारे घर जैसा पक्का घर क्यों नहीं बनवाते मामा ? नाना जी तो बड़े अफसर हैं न ! मामा भी प्रिंसिपल ! फिर क्यों छप्पर??”
“तुझे कैसे समझाऊँ ! तेरे नाना का मानना है धन ढांप के चलना चाहिए।”
“मतलब???”
“मतलब, गाँव में एक अपने अकेले का पक्का घर बनवा कर किसी की नजर में चुभना नहीं चाहते। दूसरे मिट्टी और छप्पर के घर में जो ठंडक और सुक़ून मिलता है वो हमारे अपने पक्के घर में कहाँ !! जनता है तू, हम जितना धन दिखावे और शान-शौकत में खर्च कर देते है , उतना तो तेरे मामा गाँव के गरीबों की पढाई और भोजन पर खर्च कर ‘पुण्य’ कमा लेंते हैं ।”
“अच्छा! फिर मम्मी, मामा जैसे हम क्यों नहीं रहते ??”
“क्योंकि बेटा, हम शहर में रहते हैं !” सविता