सामाजिक

बेटी होना इक कर्ज

कुछ हिसाब एक जन्म में चुकता नहीं हो सकता है …. समय रहते या तो बुद्धि काम नहीं करती या हौसला में कमी हो जाती है …. समय रहते बुद्धि काम करती या समाज से लड़ने का हौसला होता तो ….. आज समाज से बहुत सी कुरितीयों का समूल नाश हो गया होता …. जिन कुरितीयों को सहना स्त्री भाग्य का लिखा मान लेती है …..

बेटी के बाप की गलती ना भी हो तो वो दामाद के पैर पकड़ माफ़ी मांगता है ताकि बेटी खुशहाल जिंदगी जिए ….. वैसी परिस्थितियों में बेटी तब क्या सोचती होगी ?
बेटी होना एक कर्ज है जो इक जन्म में अदा नहीं होता …….

*विभा रानी श्रीवास्तव

"शिव का शिवत्व विष को धारण करने में है" शिव हूँ या नहीं हूँ लेकिन माँ हूँ

One thought on “बेटी होना इक कर्ज

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    बेटी होना एक क़र्ज़ ,पढ़ कर आँखें नम हो गईं . बचपन से आज तक जो देखा और ऐसी फ़िल्में भी देखीं ,जिन में एक लड़की का बाप समधी के पैरों पर अपनी पगड़ी रखता है तो मन में भारती होना ही एक गुनाह लगता है .इतनी पडी लिखी औरतें भी अपने सुसराल में अनपढ़ हो जाती हैं . कब खात्मा होगा इन दकिअनूसी विचारों का ?

Comments are closed.